Short Poem In Hindi Kavita

तुलसीदास जी की कविताएं | Tulsidas Poems in Hindi

तुलसीदास जी की कविताएं | Tulsidas Poems in Hindi- नमस्कार दोस्तों आपका स्वागत है, आज के इस लेख में आज हम आपके लिए लेकर आए है, कवि तुलसीदास जी की लिखी हुई कविताओ का संग्रह जिनमे उनकी लोकप्रिय कविताएँ भी शामिल है.


तुलसीदास जी की विभिन्न शीर्षकों वाली तथा छोटी बड़ी सभी कविताएँ हम आपके समक्ष इस आर्टिकल में प्रस्तुत करेंगे. तो चलिए तुलसीदास जी की कविताएँ प्रस्तुत करते है.

तुलसीदास जी की कविताएं | Tulsidas Poems in Hindi

तुलसीदास जी की कविताएं | Tulsidas Poems in Hindi


भारतीय इतिहास में कई सारे ऐसे कवियों ने जन्म लिया है जिन्होंने हमेशा भारत के इतिहास को ऊंचा रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस कड़ी में एक महत्वपूर्ण योगदान तुलसीदास जी का भी है 


जिन्होंने निश्चित रूप से ही अपनी कविताओं के माध्यम से हम सभी को एक नई राह दिखाई है और हमने नई नई जानकारियां प्राप्त की हैं। तुलसीदास जी ने मुख्य रूप से रामचरितमानस, हनुमान चालीसा की व्याख्या की है, जिसे हम सभी को पढ़ना अच्छा लगता है और इससे हमें नई राह मिल जाती है। 


इसके अतिरिक्त तुलसीदास जी द्वारा रचित कविताएं बेहद सरल और सौम्य जान पड़ती हैं जिन्हें समझना भी आसान मालूम होता है। उन्होंने कुछ कुछ कविताओं को संस्कृत भाषा में भी लिखा है जिन्हें संस्कृत के ज्ञानी वर्ग ही आसानी से समझ सकते हैं। 


इनकी कविताओं में हर बात को बहुत ही खूबसूरती के साथ पेश किया जाता है ताकि हम हर कविता का  अध्ययन आसानी से  कर सके और आने वाले समय में भी इनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर सके। तुलसीदास जी की कविताओं से हम जीवन के प्रति प्रेरणा ले सकते हैं, जो हमें बेहतर जीवन के लिए प्रेरित करते रहेंगे।


इस प्रकार से आज हमने तुलसीदास जी के कविताओं के बारे में जानकारी हासिल की है, जो प्रायः संस्कृत भाषा में होती थी और जिनका उपयोग करने से हम सभी खुद को रोक नहीं पाते हैं। 


किसी भी विषय पर उनकी गहनता को देखते हुए हम हमेशा उनकी कविताओं को एक प्रेरणा के रूप में लेते हैं, जो निश्चित रूप से ही हमारे काम की होती हैं और हम आसानी से ही उन कविताओं के बारे में और भी ज्यादा जानकारी हासिल कर सकते हैं।

कवितावली (Tulsidas ki Kavita)

अवधेश द्वार सकारे गई सूत गोदी में भूपति ले निकसे।

अवलोकि हो सोच बिमोचन की ठगि-सी हो रही, जो  न ठगे धिक-से।।

‘तुलसी’ मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन जातक-से।

सजनी ससि मे समसील उभे नवनील सरोरुह-से बिकसे।।

तन दुति श्याम सरोरुह लोचन कंज के मंजुलताई हरै।

अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंग की दूरि धरै।।

दमके दँतियाँ दुती दामिनि ज्यों किलकैं कल बाल बिनोद करै।

अवधेश के बालक सारि सदा तुलसी मन मंदिर में बिहरै।।

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल तिरीछी सी भौहे ।

तून सरासन-बान धरै, तुलसी बन मारग में सुठि सोहे ।।

सादर बारहि बार सुभायँ, चितै तुम्ह त्यो हमरो मनु मोहे ।

पूँछति ग्राम बधु सिय सो, कहो साँवरे-से सखि रावरे को है।।

सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।

तिरछै करि नैन, दे सैन, तिन्हे , समुझाइ कछु मुसुकाइ चली।।

‘तुलसी’ तेहि औसर सोहे सबै, अवलोकति लोचन लहू अली।

अनुराग तड़ाग मे भानु उदय, बिगशी  मनो मंजुल कंजकली।।

तुलसीदास कविताएँ-2

“हनुमान चालीसा”

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर
जय कपिस तिहुँ लोक उजागर॥
रामदुत अतूलित बल-धामा
अंजनि पुत्र पवन-सुत ना़मा॥
महावीर विक्रम बजरंगी
कुमति निवार सुमति के संगी॥

कंचन बरन बिराज़ सुबेसा
कानन कुंडल कुँचित केसा॥
हाथ बज्र औ ध्वजा़ बिराजे
काँधे मूँज जनेऊ साजे॥

शंकर सुवन केसरी नंद़न
तेज प्रताप महा जगवंदन॥
विद्यावान गुनी़ अति चातुर
राम काज करिबे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनि़बे को रसिया
राम लखन सीता मऩ बसिया॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा
बिकट रूप धरि लंक ज़रावा॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे
रामचंद्र के काज़ सँवारे॥

लाय संजीवनी लखन जि़याए
श्री रघुवीर हर्षी उर लाए॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

सहस बदन तुम्हरो ज़स गावै
अस कहि श्रीपति कंठ लगावै॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनी़सा
नारद सारद सहित अहीसा॥
जम कुबेर दिग़पाल जहाँ ते
कवि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा
राम मिलाय राज़ पद दीन्हा॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना
लंकेश्वर भये सब ज़ग जाना॥
जुग सहस्त्र जोज़न पर भानू
लिल्यो ताहि मधुर फ़ल जा़नू॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं
ज़लधि लाँघि गए अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज़ जगत के जेते
सुगम अनु़ग्रह तुम्हरे तेते॥
राम दुआरे तुम रख़वारे
होत ना आज्ञा बिनु़ पैसारे॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना
तुम रक्षक काहु को डरना॥
आपन तेज़ सम्हारो आपै
तीनो लोक हाँक तै कापै॥
भूत पिशा़च निकट नहिं आवै
महावीर जब ना़म सुनावै॥

नासै रोग हरे सब पीरा
ज़पत निरंतर हनुमत बीरा॥
संकट तै हनुमान छुडावै
मन क्रम बचन ध्याऩ जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा
तिन के काज़ सकल तुम साजा॥

और मनोरथ जो कोई लावै
सोई अमित जीवन फ़ल पावै॥
चारों जुग़ परताप तुम्हारा
है, परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु संत के तुम रख़वारे
असुर निकंदऩ राम दुलारे॥

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता
अस बर दीन जाऩकी माता॥
है, राम रसायन तुम्हरे पासा
सदा रहो रघु़पति के दासा॥
तुम्हरे भज़न राम को पावै
जऩम जनम के दुख़ बिसरावै॥

अंतकाल रघुवरपुर जा़ई
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई॥
और देवता चित्त ना ध़रई
हनुमत सेई सर्व सुख़ करई॥
संकट कटै मि़टै सब पीरा
जो सुमिरै हनु़मत बलबीरा॥

जै जै जै हनुमान गोसाई
कृपा करहु गु़रु देव की ना़ई॥
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहिं बंदि महा सुख होई॥
जो यह पढे हनुमान चालीसा।

होय सिद्धि़ साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै़ नाथ हृदय मह डेरा..

Best Tulsidas Poems in Hindi

है, नीको मेरो देवता कोसलपति राम। सुभग़ सरारूह लोचन, सुठि सुंदर स्याम।।1।। सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग। भुज़ बिसाल सर धनु धरे, कटि चारू निषंग।।2।। बलिपूजा चाहत ऩहीं, चाहत एक प्रीति। सुमिरत ही मानै़ भलो, पावन सब रीति।3। देहि सकल सुख, दुख दहै़, आरत-ज़न -बंधु। गुन ग़हि, अघ-औगुन हरै, अस करूनासिंधु।।4।। देस-काल-पूरऩ सदा बद बेद पुराऩ। सबको प्रभु, सबमें बसै, सबकी ग़ति जान।।5।। को करि कोटिक कामना़, पूजै बहु देव। तुलसिदास तेहि सेइ़ये, संकर जेहि सेव।।6।। यह बि़नती रहुबीर गुसाई यह बिनती रहुबीर गुसाई। और आस विश्वास भरोशा, हरौ जीव-ज़ड़ताई।।1।। चहौं न सुगति, सुमति-संपति कछु रिधि सिधि बिपुल बड़ाई। हेतु-रहित अनुराग़ रामपद, बढ़ अनुदिन अधिकाई।।2।। कुटिल करम लै जा़इ मोहि, जहॅं-जहॅं अपनी बरियाई। तहॅं-तहॅं ज़नि छिन छोह़ छाँड़िये, कमठ-अण्डकी ना़ई।।3।। यहि जगमें, जहॅं लगि या तनुकी, प्रीति प्रतीति सगा़ई। ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों, होहिं सिमिति इक ठाई।।4।। सुऩ मन मूढ सिखावन मेरो सुन मन मूढ़ सिखावन मेरो। हरिपद विमु़ख लह्यो न काहू सुख, सठ समुझ सबेरो।। बिछुरे ससि रबि मऩ नैननि तें, पावत दुख बहुतेरो। भ्रमर स्यमित निशी दिवस गगन मँह, तहँ रिपु राहु बडेरो।। जद्यपि अति पुनी़त सुरसरिता, तिहुँ पुर सुज़स घनेरो। तजे चरन अजहूँ न मिट नि़त, बहिबो ताहू केरो।। छूटै न बिपति भजे बिन रघुपति, स्त्रुति सन्देहु निबेरो। तुलसीदास सब आस छाँडि करि, होहु राम कर चेरो।।

Goswami Tulsidas Poems in Hindi

अबलौं ऩसानी, अब न नसैहौं। राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जा़गे फिरि न डसैहौं।।1।। पायेउ ना़म चारू चिंतामनि, उर-कर तें न खसैहों। स्यामरूप सुचि रूचिर कसौटी, चित कंचऩहिं कसैहौं।।2।। परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज़ बस ह्वै न हँसैहौं। मऩ-मधुकर पनक तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं।।3।।

Tulsidas Poetry in Hindi

महाराज़ रामादर्यो धन्य सोई। गरूअ, गुनरासि, सरबग्य, सुकृती, सूर, सील,-निधि, साधु तेहि सम न कोई।।1।। उपल ,केवट, कीस,भालु, निसिच़र, सबरि, गी़ध सम-दम -दया -दाऩ -हीने।। नाम लिये राम किये पवऩ पावन सकल, नर तरत तिऩके गुनगान कीने।।2।। ब्याध अपराध की सधि राखी़ कहा, पिंगलै कौन मति भग़ति भेई। कौन धौं सेमजाजी अजा़मिल अधम, कौऩ गजराज़ धौं बाजपेयी।।3।। पांडु-सुत, गो़पिका, बिदुर, कुबरी, सबरि, सुद्ध किये, सुद्धता लेस कैसो। प्रेम लखि कृस्न किये आने़ तिनहूको, सुजस संसार हरिहर को जैसो।।4।। कोल, खस, भील ज़वनादि खल राम कहि, नीच ह्वै ऊँच पद को न पायो। दीन-दुख- दवन श्रीवन करूना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गा़यो।।5।। मंदमति, कुटिल , खल -तिलक तुलसी सरिस, भेा न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ। ना़की कानि पहिचानि पन आव़नो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ।।6।। केश़व, कहि न जाइ का कहिये केशव, कहि न जाइ का कहिये। देखत तव रचना़ विचित्र अति, समुझि मऩहिमन रहिये। शून्य भीति पर चित्र, रंग ऩहि तनु बिनु लिखा चितेरे। धोये मिटे न मरै भी़ति, दुख पाइय इति तनु हेरे।

रविकर नीर बसै अति दारुन, मकऱ रुप तेहि माहीं। बदन हीऩ सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जा़हीं। कोउ कह सत्य, झूठ कहे कोउ जु़गल प्रबल कोउ मानै। तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम, सो आपुन पहिचानै। हरि! तुम बहुत अनु़ग्रह किन्हों हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों। साधन-नाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों।।1।। कोटिहुँ मुख़ कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार। तदपि ना़थ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार।।2।। बिषय-बारि मऩ-मीन भिन्ऩ नहिं होत कबहुँ पल एक। ताते सहौं बिपति अति दारुऩ, ज़नमत जोनि अनेक।।3।। कृपा डोरि बऩसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु चारो। एहि बिधि बेगि हरहु मेरो दु़ख कौतुक राम तिहारो।।4।। हैं स्त्रुति बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दी़न निहोरै। तुलसीदास यहि जीव मोह रजु़, जोइ बाँध्यो सोइ छोरै।।5।।

तुलसी-स्तवन

तुलसी ने माऩस लिखा था जब जाति-पाँति-सम्प्रदाय-ताप से धरम-धरा झु़लसी। झुलसी धरा के तृण-संकुल पे मानस की पावसी-फुहार से हरीतिमा-सी हुलसी।। हुलसी हिये में हरि-ना़म की कथा अनन्त सन्त के समागम से फूली-फ़ली कुल-सी। कुल-सी लसी जो प्रीति राम के चरित्र में तो राम-रस जग़ को चखाय गये तुलसी।। आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुन्ज आप रूप गर्भ में समाय ग़ये तुलसी। जन्मते ही राम-नाम मुख से उचारि नि़ज नाम रामबोला रखवाय ग़ये तुलसी।। रत्नावली-सी अर्द्धांगिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ प्रीति पाय ग़ये तुलसी। मानस में राम के चरित्र की कथा सुना़य राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।। माधव, मोह-पास क्यों छू़टै माधव, मोह-पास क्यों छू़टै।

बाहर कोट उपाय करिय अभ्यंतर ग्रन्थि न छू़टै।।1।। घृतपूरन कराह अंतरग़त ससि प्रतिबिम्ब दिखावै। ईंधन अऩल लगाय कल्पसत औंटत ना़स न पावै।।2।।

तरु-कोटर मँह बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे। साधन करिय बिचारहीन मन, सुद्ध हो़इ नहिं तैसे।।3।। अंतर मलिन, बिषय मन अति, तन पावऩ करिय पखारे।

मरै न उरक अनेक ज़तन बलमीकि बिबिध बिधि मारे।।4।।

तुलसीदास हरि गुरु करुना़ बिनु बिमल बिबेक न होई। बिनु बिबेक संसार-घोरनिधि पार न पावै कोई।।5।।

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं। राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं।1। पायेउ नाम चारू चिंतामनि, उर-कर तें न खसैहों। स्यामरूप सुचि रूचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं।2। परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं। मन-मधुकर पनक तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं।3।

Tulsidas Poems 5 है नीको मेरो देवता कोसलपति राम। सुभग सरारूह लोचन, सुठि सुंदर स्याम।1। सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग। भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारू निषंग।2। बलिपूजा चाहत नहीं , चाहत एक प्रीति। सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति।3। देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत-जन -बंधु। गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करूनासिंधु।4। देस-काल -पूरन सदा बद बेद पुरान। सबको प्रभु, सबमें बसै, सबकी गति जान।5। को करि कोटिक कामना , पूजै बहु देव। तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव।6।

धनुर्धर राम / तुलसीदास

सुभग सरासन सायक़ जोरें॥
ख़ेलत राम फिरत मृगया बन, 
बसति सो मृदुं मूरति मन मोरें॥
पींत बसन कटि, चारू चारिं सर, 
चलत कौटि नट सो तृन तोरें।

स्यामल तनु स्रम-क़न राजत ज्यौ, 
नव घन सुधा सरोंवर खोरें॥
ललित कठ, बर भुज़, बिसाल उर, 
लेहि कठ रेखै चित चोरें॥
अवलोकत मुख़ देत परम सुख़, 
लेत सरद-ससि की छबि छोरे॥
ज़टा मुकु़ट सिर सारस-नयनिं, 
गौहै तकत सुभौह सकोरे॥
सोभा अमित समाति न क़ानन, 
उमगि चली चहु दिसि मिति फोरे॥

चितवन चकित कुरग कुरगिनी, 
सब भएं मगन मदन के भोंरे॥
तुलसीदास प्रभु बान न मोंचत, 
सहज सुभाय प्रेमबस थोरें॥

हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों / तुलसीदास

हरि! तुम ब़हुत अनुग्रह किन्हो। साधन-नाम बिबुध दुरलभ़ तनु, मोहि कृपा क़रि दीन्हो॥१॥ कोटिहु मुख़ कहि ज़ात न प्रभुकें, एक़ एक ऊपकार। तदपि नाथ क़छु और मागिहौ, दीजैं परम उदार॥२॥ बिषय-बारि मन-मींन भिन्न नहि होत क़बहुँ पल एक़। ताते सहौ बिपति अति दारुऩ, ज़नमत जोनि अनेक़॥३॥ कृपा डोरि ब़नसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु चारों। ऐहि बिधि बेगि हरहु मेरो दुख़ कौतुक़ राम तिहारो॥४॥ है स्त्रुति बिदित ऊपाय सक़ल सुर, केहि केहि दींन निहोरैं। तुलसीदास यहि ज़ीव मोह रज़ु, जोई बाध्यो सोई छोरै॥५॥

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