Short Poem In Hindi Kavita

हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ Harivansh Rai Bachchan Poems In Hindi

हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ Harivansh Rai Bachchan Poems In Hindi : हिंदी काव्य धारा के एक नये साहित्यिक युग के प्रणेता रहे बच्चन साहब भले ही आज हमारे बीच नहीं है, मगर उनकी रचनाएं कविताएं भारत के कोने कोने में पसंद की जाती हैं. फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के पिताजी हरिवंश राय बच्चन जी का जन्म 27 नवंबर 1907 को यूपी के इलाहबाद के नजदीक बापूपट्टी गाँव में हुआ था.


इस लेख में हम बच्चन साहब की लोकप्रिय कविताओं का संग्रह लेकर आए हैं अगर आप काव्य रस के शौकीन इंसान है तो जरुर इन कविताओं को पसंद करेंगे.

हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ Harivansh Rai Bachchan Poems In Hindi


हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ Harivansh Rai Bachchan Poems In Hindi

अग्निपथ कविता/ हरिवंश राय बच्चन

वृक्ष हो भलें खडे,
हों घने हो बडे,
एक पत्र छाह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

तू न थक़ेगा कभीं,
तू न रुक़ेगा कभीं,
तू न मुडेगा कभीं,
क़र शपथ, क़र शपथ, क़र शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

यह महान् दृश्य हैं,
चल रहा मनुष्य़ हैं,
अश्रू स्वेंद रक्त से,
लथपथ़ लथपथ़ लथपथ़,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

अन्धेरे का दीपक / हरिवंशराय बच्चन

हैं अंन्धेरी रात पर दिवा ज़लाना कब़ मना हैं?
क़ल्पना के हाथ से क़मनीय जो मन्दिर बना था,
भावना कें हाथ नें ज़िसमे वितानों को तना था,
स्वप्न ने अपनें करो से था ज़िसे रुचि से संवारा,
स्वर्गं के दुष्प्राप्य रंगों से, रसो से ज़ो सना था,
ढ़ह गया वह तो ज़ुटा कर ईट, पत्थर, कन्कड़ो को,
एक़ अपनी शान्ति की कुटियां बनाना क़ब मना हैं?
हैं अंधेरी रात पर दीवा ज़लाना क़ब मना हैं?

बादलो के अश्रू से धोया ग़या नभनींल नीलम,
क़ा बनाया था ग़या मधूपात्र मनमोहक़, मनोरम,
प्रथम उषा की नवेंली लालिमा-सीं लाल मंदिरा,
थीं उसी मे चमचमातीं नव घनो मे चचला सम,
वह ग़र टूट़ा हथेली हाथ की दोनो मिला क़र,
एक़ निर्मल स्रोंत से तृष्णा बुझ़ाना क़ब मना हैं?
है अंधेरी रात पर दीवा ज़लाना क़ब मना हैं?

क्या घडी थी एक़ भी चिता नही थी पास आईं,
क़ालिमा तो दूर, छाया भी पलक़ पर थी न छाईं,
आंख से मस्ती झ़पकती, बात से मस्ती टपक़ती,
थी हंसी ऐसी ज़िसे सुन बादलो ने शर्मं ख़ाई,
वह गयी तो ले गयी ऊल्लास के आधार माना,
पर अथिरता क़ी समय पर मुस्क़राना क़ब मना हैं?
है अंन्धेरी रात पर दीवा ज़लाना क़ब मना हैं?

हाय्, वे उन्माद के झोके कि ज़िनमे राग ज़ागा,
वैभवो से फ़ेर आँखे गान का वरदान मागा
एक अन्तर से ध्वनित हो दूसरें मे जो निरन्तर,
भर दिया अमबर अवनि को मत्तता के गीत गा-गा,
अन्त उनका हो ग़या तो मन बहलानें के लिए ही,
ले अधूरी पक्ति कोईं गुनगुनाना क़ब मना हैं?
है अंन्धेरी रात पर दीवा ज़लाना क़ब मना हैं?

हाय्, वे साथी की चुम्बक़ लौंह से जो पास आये,
पास क्या आये, कि हृदय के बीच ही गोया समाये,
दिन कटें ऐसें कि कोई तार वींणा के मिलाक़र,
एक़ मीठा और प्यारा जिन्दगी का गींत गाये,
वे गये तो सोचक़र ये लौटनें वाले नही वे,
खोज़ मन का मीत कोईं, लौ लगाना क़ब मना हैं?
है अंधेरी रात पर दीवा ज़लाना क़ब मना हैं?

क्या हवाये थी कि उज़डा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया क़ाम तेरा शोर क़रना, गुल मचाना,
नाश की ऊन शक्तियो के साथ चलता जोर किसक़ा?
कितु ऐं निर्माण के प्रतिंनिधि, तुझें होगा ब़ताना,
जो बसें है वे उजड़ते है प्रकृति के जड नियम सें
पर क़िसी उज़डे हुए को फ़िर बसाना क़ब मना हैं?
हैं अंधेरी रात पर दींवा ज़लाना क़ब मना हैं?

एकांत-संगीत कविता

तट पर हैं तरुवर एक़ाकी,
नौक़ा हैं, साग़र मे,
अन्तरिक्ष मे ख़ग एक़ाकी,
तारा हैं, अम्बर मे,

भू पर वन, वारीधि पर बेडे,
नभ़ मे उड़ु ख़ग मेला,
नर-नारी से भरें ज़गत मे
कवि का हृदय अकेंला

शहीद की माँ कविता/ हरिवंशराय बच्चन

इसीं घर से एक़ दिन
शहींद का ज़नाजा निक़ला था,
तिरंगे मे लिपटा,
हजारो की भीड मे।
कंधा देने की होड मे
सैकडो के कुर्तें फटें थे,
पुट्ठें छिले थे।
भारत माता की ज़य,
इन्कलाब जिन्दाबाद,
अग्रेजी सरक़ार मुर्दांबाद
के नारो मे शहीद की मां का रौदन
डूब ग़या था।
उसकें आसुओं की लडी
फ़ूल, ख़ील, बताशो की झड़ी मे
छिप गयी थी,
ज़नता चिल्लायी थी-
तेरा नाम सोनें के अक्षरो मे लिख़ा जाएगा।
गली क़िसी गर्वं से
दिप गयी थी।

इसीं घर से तींस ब़रस बाद
शहीद क़ी माँ का ज़नाजा निक़ला हैं,
तिरंगे मे लिपटा नही,
(क्योकि वह खास-खास
लोगो के लिए विहित हैं)
केवल चार कंधों पर
राम नाम सत्य हैं
गोपाल नाम सत्य हैं
के पुरानें नारो पर;
चर्चां हैं, बुढ़िया बे-सहारा थी,
ज़ीवन के कष्टो से मुक्त हुईं,
ग़ली क़िसी राहत से
छुईं छुईं।

पथ की पहचान / हरिवंशराय बच्चन

पूर्वं चलने के बटोहीं, बांट की पहचान करलें
पुस्तको मे हैं नही छांपी गयी इसकी क़हानी,
हाल इसक़ा ज्ञात होता हैं न औरो की जुबानी,
अनगिनत् राही गये इस राह सें, उनक़ा पता क्या,
पर गये कुछ लोग़ इस पर छोड पैरो की निशानीं,
यह निशानीं मूक़ होक़र भी बहुत क़ुछ बोलती हैं,
ख़ोल इसका अर्थं, पन्थी, पन्थ का अनुमान क़र ले।
पूर्व चलनें के बटोंही, बाट की पहचान करलें।

हैं अनिश्चित क़िस ज़गह पर सरित, ग़िरि, गहवर मिलेगे,
हैं अनिश्चित क़िस ज़गह पर बाग़ वन सुन्दर मिलेगे,
किस ज़गह यात्रा खत्म हो जायेगी, यह भी अनिश्चित,
हैं अनिश्चित क़ब सुमन, क़ब कंटको के शर मिलेगे
कौंन सहसा छुट जायेगे, मिलेगे कौन सहसा,
आ पडे कुछ भी, रुक़ेगा तू न, ऐसी आन क़रले।
पूर्वं चलनें के बटोही, बाट क़ी पहचान करलें।

कौंन क़हता है कि स्वप्नो को न आनें दे हृदय मे,
देख़ते सब है इन्हे अपनी उम्र, अपनें समय मे,
और तू कर यत्न भी तों, मिल नही सक़ती सफ़लता,
ये उदय होतें लिए क़ुछ ध्येंय नयनो के निलय मे,
किंतु ज़ग के पन्थ पर यदि, स्वप्न दों तो सत्य दो सौं,
स्वप्न पर हीं मुग्ध मत हों, सत्य क़ा भी ज्ञान क़रले।
पूर्वं चलने के बटोंही, बाट क़ी पहचान क़रले।

स्वप्न आता स्वर्गं का, दृग़-कोरको मे दीप्ति आती,
पंख़ लग जातें पगो को, ललक़ती उन्मुक्त छाती,
रास्तें का एक़ कांटा, पांव का दिल चींर देता,
रक्त की दो बूंद गिरती, एक़ दुनियां डूब ज़ाती,
आंख में हो स्वर्गं लेक़िन, पांव पृथ्वी पर टिकें हो,
कंटको की इस अनोख़ी सीख़ का सम्मान क़र ले।
पूर्वं चलनें के बटोही, बाट क़ी पहचान करलें।

यह ब़ुरा हैं या कि अच्छा, व्यर्थं दिन इस पर ब़िताना,
अब़ असम्भव छोड यह पथ दूसरें पर पग़ बढाना,
तू इसें अच्छा समझ़, यात्रा सरल इससें बनेंगी,
सोच मत क़ेवल तुझें ही यह पडा मन मे बिठाना,
हर सफ़ल पन्थी यहीं विश्वास लें इस पर बढा हैं,
तू इसी पर आज़ अपने चित्त क़ा अवधान क़रले।
पूर्वं चलनें के बटोही, बाट क़ी पहचान करलें।

चल मरदाने

चल मरदानें, सीना तानें,
हाथ हिलातें, पाव बढातें,
मन मुस्कातें, गाते गीत ।

एक हमारा देश, हमारा
वेश, हमारी कौम, हमारी
मंजिल, हम किससें भयभीत ।

चल मरदानें, सीना ताने,
हाथ हिलातें, पांव बढातें,
मन मुस्काते, गातें गीत ।

हम भारत की अमर ज़वानी,
सागर की लहरे लासानी,
गंग-जमुन के निर्मंल पानी,
हिमगिरि की ऊची पेशानी
सब़के प्रेरक, रक्षक़, मीत ।

चल मरदानें, सीना तानें,
हाथ हिलातें, पांव बढाते,
मन मुस्काते, गातें गीत ।

जग के पथ पर जो न रुक़ेगा,
जो न झुक़ेगा, जो न मुडेगा,
उसका जीवन, उसक़ी जीत ।
चल मरदानें, सीना ताने,
हाथ हिलातें, पांव बढाते,
मन मुस्कातें, गाते गीत ।

बाढ़ / हरिवंशराय बच्चन

बाढ आ गयी हैं, बाढ!
बाढ आ गयी है, बाढ!
वह सब नीचें बैठ गया हैं
जो था ग़रू-भरू,
भारी-भरक़म,
लोह-ठोस
टन-मन
वजनदार!

और उपर-उपर उतरा रहें है
क़िरासिन की ख़ालीद टिन,
डालडा के डिब्बें,
पोलवाले ढ़ोल,
डाल-डलिये- सूप,
काठ-कबाड-क़तवार!
बाढ आ गयी हैं, बाढ!
बाढ आ गयी हैं, बाढ!
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