रविवार
रविवार को बंद रहता था स्कूल
छुप कर आराम करती थीं किताबें
पुरानी पैंट के झोले में
कॉपियों पर पैर फैला कर
लेकिन उठ जाते थे हम सब
रूटीन से काफी पहले
कभी मूंगफली बोने
गेहूं के खेत में पानी लगाने
अरहर के मजबूत पेड़ को
बांके के एक ही वार से
गिरा देने का सुख लूटने
मुंह अँधेरे साइकिल पर बस्ते की जगह
होता था डीजल की जरीकेन
कभी होती ओस भरी पतली मेड पर
डगमगाती साइकिल के कैरियर में
पुरानी रबर ट्यूब से कसी गेहूं की बोरी
रविवार को ही लगता था साप्ताहिक बाजार
लाना होता था पूरे हफ्ते की सब्जी
डालडा भैंस के लिए खली, लालटेन का शीशा
कभी कभी खराब मौसम में मुस्कुराता था रविवार
होती थी कबड्डी
उफनाए ताल में तैराकी प्रतियोगिता
ऊदल का ब्याह या माड़ों की लड़ाई
दहला पकड़
मैंने कभी अलसाया हुआ रविवार
नहीं देखा बचपन में
छः दिन इतवार
अगर हफ्ते में छह दिन
आ जाता इतवार
वाह वाह के शब्द निकलते
होती जय जयकार
वालीवाल, क्रिकेट, कबड्डी
खेल खेलते खूब
इतराते फिरते मस्ती में
हम तो निसिदिन डूब
एक दिवस ही जाना पड़ता
शाला आखिरकार
सुबह देर तक सोना भाता
लड्डू पेडे खाते
होमवर्क के हाथी घोड़े
हमसे आँख चुराते
टीचर से भी रहती दूरी
पड़ती हमें न मार
कभी घूमने जाते शिमला
कभी पहुँचते ऊटी
होठों पर सज जाती आकर
मुस्कानों की बूटी
खुशियों से महका करता फिर
बचपन का संसार
काश रोज ही संडे होता
मम्मी आज हमारी छुट्टी
प्लीज, अभी सोने दो ना
सुबह सुबह मीठी निंदिया में
थोड़ा सा खोने दो ना
ले देकर संडे मिलता है
थोड़ी मौज मनाने को
वरना मना कहाँ करते हैं
पढ़ने लिखने जाने को
आँख मूँद कर चिंता सारी
सपनों में धोने दो ना
होमवर्क देती क्यूँ टीचर
कोई उनको समझाए
संडे को हम खेलें कूदें
खाते पीते दिन जाए
ताले भीतर रख दो बस्ते
लाकर नए खिलौने दो ना
काश रोज ही संडे होता
तो कितना अच्छा होता
घर पर ही रहता हर बच्चा
खाता पीता और सोता
लेकिन ऐसा कभी न होगा
जो होता होने दो ना
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