Short Poem In Hindi Kavita

रविवार पर कविता | Poem on Sunday in Hindi

रविवार पर कविता | Poem on Sunday in Hindi में आपका स्वागत हैं. आज हम छुट्टी के वार यानी रविवार के बारे में हिंदी कविताएँ पढ़ेगे. संडे हॉलिडे की हर स्टूडेंट्स को बेसब्री से इन्तजार रहता हैं. चलिए बेहतरीन कविताओं को पढ़ते हैं.

रविवार पर कविता | Poem on Sunday in Hindi


रविवार पर कविता | Poem on Sunday in Hindi

 रविवार

रविवार को बंद रहता था स्कूल
छुप कर आराम करती थीं किताबें
पुरानी पैंट के झोले में
कॉपियों पर पैर फैला कर
लेकिन उठ जाते थे हम सब
रूटीन से काफी पहले
कभी मूंगफली बोने
गेहूं के खेत में पानी लगाने
अरहर के मजबूत पेड़ को
बांके के एक ही वार से
गिरा देने का सुख लूटने

मुंह अँधेरे साइकिल पर बस्ते की जगह
होता था डीजल की जरीकेन
कभी होती ओस भरी पतली मेड पर
डगमगाती साइकिल के कैरियर में
पुरानी रबर ट्यूब से कसी गेहूं की बोरी

रविवार को ही लगता था साप्ताहिक बाजार
लाना होता था पूरे हफ्ते की सब्जी
डालडा भैंस के लिए खली, लालटेन का शीशा

कभी कभी खराब मौसम में मुस्कुराता था रविवार
होती थी कबड्डी
उफनाए ताल में तैराकी प्रतियोगिता
ऊदल का ब्याह या माड़ों की लड़ाई
दहला पकड़

मैंने कभी अलसाया हुआ रविवार
नहीं देखा बचपन में

छः दिन इतवार


अगर हफ्ते में छह दिन
आ जाता इतवार
वाह वाह के शब्द निकलते
होती जय जयकार

वालीवाल, क्रिकेट, कबड्डी
खेल खेलते खूब
इतराते फिरते मस्ती में
हम तो निसिदिन डूब

एक दिवस ही जाना पड़ता
शाला आखिरकार

सुबह देर तक सोना भाता
लड्डू पेडे खाते
होमवर्क के हाथी घोड़े
हमसे आँख चुराते
टीचर से भी रहती दूरी
पड़ती हमें न मार

कभी घूमने जाते शिमला
कभी पहुँचते ऊटी
होठों पर सज जाती आकर
मुस्कानों की बूटी
खुशियों से महका करता फिर
बचपन का संसार


काश रोज ही संडे होता

मम्मी आज हमारी छुट्टी
प्लीज, अभी सोने दो ना
सुबह सुबह मीठी निंदिया में
थोड़ा सा खोने दो ना

ले देकर संडे मिलता है
थोड़ी मौज मनाने को
वरना मना कहाँ करते हैं
पढ़ने लिखने जाने को

आँख मूँद कर चिंता सारी
सपनों में धोने दो ना

होमवर्क देती क्यूँ टीचर
कोई उनको समझाए
संडे को हम खेलें कूदें
खाते पीते दिन जाए

ताले भीतर रख दो बस्ते
लाकर नए खिलौने दो ना

काश रोज ही संडे होता
तो कितना अच्छा होता
घर पर ही रहता हर बच्चा
खाता पीता और सोता

लेकिन ऐसा कभी न होगा
जो होता होने दो ना

रविवार

‘ईतवार” वारो मे सबसे न्यारा
लगता ये ज़न जन को प्यारा
सूर्यं देव का उपहार
अपना प्यारा “रविवार”

यांत्रिक़ से बनतें सामान्य
पारिवारिक़ मूल्य होते मान्य
एक दूसरें के आते करीब़
काम-काज़ी अमीर गरीब़

हफ्तें भर की मिटती थक़ान
गर्मागर्म मिलता पकवान
कार्यालय विद्यालय का नही तनाव
कोईं समय को, देता नही भाव

सभी मनातें घर में मौंज
दोस्तो की पहुचती फ़ौज़
लगतें जमकर हंसी ठहाके
उद्यान-भोज़ और सैर सपाटे

ईंश्वर ने किया कुछ खोटा
सभी दिनो से लगता छोटा
डर से की मंडे ना आए
प्यारा “संडे” शीघ्र बीत जाए
- बिजय बहादुर तिवारी “धूल”

रविवार / महेश वर्मा

रविवार को देवता अलसातें है
ग़ुनगुनी धूप मे
अपने प्रासाद के ताख़े पर 
वे छोड आये है आज़

अपनी तनी हुईं भृकुटीं 
और ज़टिल दंड-विधान 
नीद मे मुस्कराती किशोरीं की तरह 
अपनें मोद मे हैं दीवार-घडी 

खुशी मे चहचहा रहीं है घास और 
चाय की प्यालीं ने छोड दी हैं
अपनी गम्भीर मुख़-मुद्रा 
कोईं आवारा पहिया लुढक़ता 
चला जा रहा है 

वादियो की ढ़लुआ पग़डंडी पर 
यह खरगोश ह आपक़ी 
प्रेमिका की याद नही 
जो दिख़ा था, ओझ़ल हो गया 
रहस्यमय झाडियो में 

यह कविता का दिन हैं
गदय के सप्ताह मे 
हम अपनी थक़ान को 
बहने देगे एड़ियो से बाहर 

नीद में फैंलते खून की तरह 
हम चाहेगे एक धूला हुआ 
कुर्तां-पायजामा 
और थोडी-सी मौंत। 
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