जूते चपलों पर कविता | Poem On Shoe In Hindi नमस्कार दोस्तों आपका स्वागत हैं. इस आर्टिकल में हम जूते चप्पल बूट शूज शोक्स पर लिखी गई बेहतरीन हिंदी कविताएँ आपके साथ शेयर कर रहे हैं. उम्मीद करते है आपको ये आर्टिकल पसंद आएगा.
जूते चपलों पर कविता | Poem On Shoe In Hindi
मेरे जूते
अरे अरे रे मेरे जूते
मैं तो तेरे ही बल बूते
दूर दूर तक हो जाता हूँ
विद्यालय पढ़ने जाता हूँ
पूरी सड़क पार कर जाता
रामू, श्यामू के घर जाता
मेरे पाँव न ठोकर खाते
काँटे कील न चुभने पाते
तू यदि नहीं पाँव में होता
मैं घर बैठा बैठा रोता
कहीं नहीं जा पाता बाहर
घूम नहीं पाता दुनिया भर
मेरे जूते
स्कूल चलूँ जब ये भी जाते
दोनों मुंह चमकाए
जुड़वाँ भाई जूते चलते
तालू जीभ दबाएँ
पैरों में डल साफ़ सड़क पर
बड़ी शान से चलते
पर कीचड़ से बच बच निकलें
फिर भी उसमें सनते
कीचड़ धूप सने जब आए
सारा घर घबराए
इन जूतों को बाहर रखो
मम्मी डांट लगाए
पालिश भी करता मैं इनकी
करता खूब साफ़ सफाई
उधड़े जब आगे पीछे से
मोची करे सिलाई
दौड़ दौड़ फ़ुटबाल खेलता
मैं इनके बलबूते
बहुत ध्यान रखता पैरों का
मेरे अच्छे जूते
गुल्लू का जूता
गुल्लू चले खेलने तो
उसको जूते ने टोका
घर से बाहर नंगे पैरों
जाने से भी रोका
बोला गुल्लू कहाँ चल दिए
बनके राजा भैया
मुझको साथ ले चलो वरना
चीखोगे तुम दैय्या
रोज नुकीले काँटों से
पत्थर से तुम्हें बचाऊ
खेत, नदी, जंगल पहाड़ पर
साथ तुम्हारे जाऊं
लेकिन बिलकुल भी ढंग से तुम
मुझसे पेश न आते
मुझे छोड़कर दरवाजे पर
तुम घर में घुस जाते
मुझको ये बर्ताव तुम्हारा
बिलकुल समझ न आए
बस उछाल देते हो मुझको
पड़ा रहूँ मुंह बाए
खुद तो रोज नहाते धोते
मैं गंदा का गंदा
पोलिश नहीं किया हफ्तों से
कैसा है तू बन्दा
मुझको लेकर साथ चला था
भैय्या इब्नेबतूता
गुल्लू को इतिहास पढ़ाता
ये गुल्लू का जूता
जूते चपलों पर कविता
जूते बैठें दरवाजें पर,
झांक़ रहे बैठक खानें मे।
कहते है क्यो- हमे मनाही ?
हरदम ही भीतर आनें मे।
कईं बार धोखें धधें से ,
हम भीतर घुस ही ज़ाते है।
लेकिन देख़-देख़ दादी के,
तेवर हम तो डर ज़ाते है।
लगता हैं गुस्सें के मारे,
हमें भिज़ा देगी वह थानें।
उधर चप्पलो का आलम हैं ,
बिना डरे बेधडक घूमती।
बैठक़ खाने के, रसोईं के,
शयन क़क्ष के फर्शं चूमती।
घर के लोग़ मजें लेते है,
भीतर चप्पल चटकानें मे।
हम जूतो के कारण ही तो,
पांव सुरक्षित इसानों के।
ठोकर, काटे हम सहतें है,
दांव लगा अपनें प्राणो के।
फिर क्यो? हमे पटक़ देते है। ,
गंदे से जूतें खाने मे।
जूता कुछ कहता है
जूता क़ुछ कहता हैं
ज़ब से होश सभाला
मेरा दोस्त जूता,
मेरें से बोला
दुर्गंम पथरीली राहो पर,
काँटो को रौदते हुए मुह ख़ोला
साहब !
तलें से फ़टा हूं,
अब तो आराम दो
मेरें ख़ातिर,
कोईं छुट्टीं का नाम दो
रगडना और घसींटना,
क़ब तक?
दर्दं से कराह रहा हूं
न उह न आह,
फ़िर भी चलें जा रहा हू
कोईं भी मौंसम हो
मेरा हाल वहीं
पाँव के नीचे,
बोझ़ से लदा,
लथपथ
ठोक़र पे ठोकर ख़ाकर,
तुम्हे आगे बढा जा रहा हू
एक समय ऐंसा आया था,
बुश से लेक़र मुशर्रफ़,
चिदबरम से केज़रीवाल तक,
क़िसी ने जूता लहराया था
पूर्वं प्रधानमंत्री को भी,
जूता की ताक़त दिख़ाई थी
हिंदुस्तान की राज़नीति मे,
बोल अब़ बिगड चुकें है
अमर्यांदित भाषाओ से,
एक दूसरें को चोट कर रहे है
इससें बेहद दुख़ी हू,
शर्मिदा होक़र भी
उसके पांव तले दबा हू
काश एक़ बार और
जूता काल आए,
मेरे दर्दं का,
कोई ईलाज़ कराये
पहनाए मुझें भी,
किसी कालिख़ के गले में हार,
हो जानें दो उसे शर्मं से बेहाल
अगर इतना नही कर सक़ते,
तो निकालों जूता पैंर से,
उछालो झूठो पर,
लहराओ भ्रष्टो के उपर
बहुत सहा
अब़ न सहूगा,
निकालों तो सही
मेरें मन की भडास
-विजेन्द्र वर्मा अनजान
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