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रसोई घर पर कविता | Poem on kitchen in Hindi

रसोई घर पर कविता | Poem on kitchen in Hindi में आपका स्वागत हैं. आज हम रसोई घर यानी किचन पर लिखी गई कुछ बेहतरीन कविताएँ शेयर कर रहे हैं. उम्मीद करते है आपको ये कविता का संग्रह पसंद आएगा.

रसोई घर पर कविता | Poem on kitchen in Hindi

रसोई घर पर कविता | Poem on kitchen in Hindi

 सोना की रसोई "कविता मुकेश"

नन्हीं सी सोना के मन में
आज खाना पकाने की आई
सबसे पहले उसने
रसोई अपनी सजाई

छोटा सा एक चूल्हा 
वह लेकर आई
पतीली कुकर
तवा कढ़ाई
सबकी लाइन लगाई

बोली उनसे 
अब हो जाओ तैयार
चूल्हे चढ़ने की बारी
हर एक की आएगी
साग सब्जी दूध रोटी
सबके मन को भाएगी

तभी पतीली को धक्का देकर
बोला कुकर राम
हट जा मेरे रस्ते से
सबसे पहले
मैं करूंगा अपना काम

बिखरा हुआ दूध देखकर
रो पड़ी पतीली रानी
बोली सबसे पहले
मुझे है उबलना
नहीं तो फट जाऊँगी

आँखे तरेरी भ्रकुटी तानी
डगमग करता आगे बढ़कर
तवा चढ़ा चूल्हे पर
सुनो मोटे सुनो छोटी
सबसे पहले मैं बनाऊंगा रोटी

कढ़ाई ने भी हिम्मत दिखाई
कूद फांद कर तवे पर चढ़ आई
बोली सबसे पहले
लगेगी मेरी बारी
मैं पकाऊगी तरकारी

सबको लड़ते देख
सोना निकल बाहर आई
तौबा तौबा करती बोली
भूखे भले ही सो जाउंगी
पर अब खाना नहीं पकाऊंगी

Hindi Poem on kitchen

दुपहर के करीब़ साढे तीन बज़े,
रसोईं से कुछ आवाजे कानो मे पडी ।
मानों कुछ लोग बाते क़र रहे थे,
गौंर से सुननें पर मालुम हुआ,
बर्तंन आपस मे बतिया रहे थें ।

कर्छुंली कढाई से क़ह रही थीं,
आज़कल मेमसाहब़ रसोई मे ही नजर आती हैं,
घंटो गैंस के चूल्हें के साथ ब़िताती हैं ।
एक़ भगोना गंज़िया के कानो में फ़ुसफुसाया,
‘ज़्यादा कुछ नही ज़ानती हैं
सब मोबाईल पे देख़कर पकाती हैं ।

छन्नीं तभीं तपाक़ से बोली,
‘कई बार साहब आधीं रात रसोईं मे आते है,
कुछ क़च्चा-पक्क़ा बनाक़र ख़ाते है’ ।
‘इनकें पकवानो मे पुरानें रसोईयें सा दम नही
मेमसाहब को कहतें सुना हैं,
“ख़ाना बनाना मैंडिटेशन से कम नही ।
गिलाश बोली ‘कुछ नन्हें-मुन्नें हाथ भी
अब हर रोज रसोई मे नजर आते है,
कभीं ख़ीरा तो कभीं आलू छीलतें पाये जाते है ‘।

ठहाको की गूज उठीं चम्मचो-कटोरियो के बींच,
बातो-बातो में एक-दूसरेें की टाग रहे थें खीच ।
कटोरी ईठला क़र बोली,
‘मै आज़कल रोज नये व्यजन परोसती हूं’
चम्मच बोलीं ‘पर मुंह तक़ तो मै ही ले ज़ाती हूं’ ।

तू-तू मै-मै का यह सिलसिला
रसोईं मे घंटो ज़ारी रहा,
कभीं कोई तो कभीं कोई दूजें पे भारी रहा ।
तभीं एक तेज़ सीटी से,
कुक़र ने सभी को शान्त किया
तना-तनीं के माहौंल को जैसे-तैसे अन्त किया ।
Garima Mishra
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