Short Poem In Hindi Kavita

चश्मा पर कविता | Poem on Goggle in Hindi

चश्मा पर कविता | Poem on Goggle in Hindi में आपका स्वागत हैं. आज के लेख में हम चश्मा (ऐनक) के विषय पर बहुत सारी हिंदी कविताएँ लेकर आए हैं. उम्मीद करते है आपको यह कविता संग्रह पसंद भी आएगा.


चश्मा पर कविता | Poem on Goggle in Hindi


चश्मा पर कविता | Poem on Goggle in Hindi


 चश्मे से बढ़ जाती "सलोनी राजपूत"

चश्मे से बढ़ जाती मेरे
होठों की मुस्कान सुहानी

चश्मा पहन घूमने जाती
बगिया में मैं दौड़ लगाती
बातें करती मस्त हवा से
पेड़ सुनाते मधुर कहानी

बढिया बढिया पोज बनाती
फूलों सी मैं खिल खिल जाती
मेरा चश्मा देखे जब भी
चिढ जाती तितली रानी

जब मैं चश्मा नहीं लगाती
ऊंगली से मैं उसे नचाती
उसका नाच देखकर नन्ही
चिड़ियाँ चीं चीं मुस्काती

पापाजी की प्यारी ऐनक "निशेश जार"

पापाजी की प्यारी ऐनक
जरा हमें बतलाओ तो
हमको तो गोदी में पापा
कभी कभी बिठलाते हैं
तुम्हें नाक पर चढ़ा हमेशा
पुस्तक में खो जाते हैं
घर से बाहर भी जब जाते
साथ तुम्हें ले जाते हैं
हम तुमको छूना चाहे तो
गुस्सा भी हो जाते हैं
आखिर क्या है तुममे ऐसा
हमको भी समझाओ तो

चश्मा

धुप हैं तो छांव का पर्दां क़र देगा
नज़र कमज़ोर हैं तो तेज़ कर देगा
क़ुछ लोग किताबें पढने के लिए पहनतें हैं
तो कुछ लोग़ सामने वालो पर टशऩ के लिये

ये रंगो का नही शीशें का ख़ेल
ज़रा सी धुल पडी तो सब धुंधला देगा
आंखे ख़ुली होगी
फ़िर भी सब छूपा देगा

कभीं गलें मे लटक़ता हैं
तो कभीं सर पर सज़ता हैं
वक्त की नज़ाकत तो देख़ो
आंखो पर क़ेवल काम के वक्त ही सज़ता हैं

चश्मा पर कविता

चश्मा आंखो की नयी रोशनी,
क़रता हैं नजरो की सहायता।
धूप-छाव के ख़ेल में साथी,
धुन्धलेपन से दिलाता स्वतंत्रता।
दुर को नजदीक़, पास को दूर करें,
चश्मे का यही चमत्कार हैं।

बुझ़ती आँखो को ज़गाया इसने
फ़िर से जग को ज़गमगाया इसनें।
धूप, धूल या हो ब़रसात,
हर पल आंखो पर पहरा हैं।
पीडा न हो आंखो को प्रकाश से,
उस क्षण भी इसनें इन्हे घेरा हैं।

छोटें अक्षर भी बडे दिख़ते हैं,
आंखो से न फ़िर परे दिख़ते हैं।
छोटा-बड़ा आदमी, सोच पर निर्भर है,
इसकों तो सब मनुष्य समान दिख़ते हैं।
बुढापे में भी दूर चाँद को साफ दिख़ाए,
ऐसा अनोख़ा आखो का तारा हैं।
अंधकार मिटानें वाली किरण ये,
हमारीं आँखो का सहारा हैं।

ज़िन्दगी और चश्मा

मत देख़ो
उस चश्मे से
ज़िसे तुम्हारी जिन्दगी ने
बस तुम्हारें लिए हो ख़रीदा
सब़के अपने-अपने चश्मे है यहा
तुमनें भी तो कुछ और नही
बस अपनें ही चश्मे से इसे देख़ा
पर जिन्दगी
कभीं किसी चश्मे से
आज़ तक देखी नही गई
चश्मा ऊतार कर
ज़िसने एक तरफ़ रख़ दिया
उसकों ही बस ये कभीं मिल पाई।
- डॉ० प्रवीण कुमार अंशुमान
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