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मछली पर कविता | Poem on Fish in Hindi

मछली पर कविता | Poem on Fish in Hindi- नमस्कार दोस्तों आपका स्वागत है, हमारे ब्लॉग पर हम आपके लिए समय समय पर नई नई कविताए लेकर आते है, आज हम आपके लिए जल की रानी मछली पर छोटी बड़ी कविताए लेकर आए है.

मछली जल की रानी होती है. यह जल के बिना नहीं रह पाती है. आज हम आपके लिए मछली के जीवन से सम्बंधित कुछ रोचक कविताए लेकर आए है. जो आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे है.

मछली पर कविता | Poem on Fish in Hindi

मछली पर कविता | Poem on Fish in Hindi

 जल की तितली मछली

इतने रंग बिरंगे कपड़े
पहन कहाँ को निकली हो
तुम तो मछली रानी लगती
मानो जल की तितली हो

जरा बताओ तो ये कपड़े
किस दर्जी से सिलवाए
किस कारीगर से ये अपने
प्यारे से पर लगवाए?

चलते चलते डुबकी खाना
किससे तुमने सीखा है?
पानी में यह खेल दिखाना
किस्से तुमने सीखा है?

कभी हमें भी न्यौता देकर
घर अपने तुम ले जाओ
और सभी मित्रों से अपने
हमको भी तो मिलवाओं

मछली जल की रानी हैं

माँ मैं अगर बाथटब में भी
डुबकी कभी लगाती हूँ
पल भर में बाहर आ जाती
दम घुटता, घबराती हूँ

पर होता आश्चर्य मुझे है
मछली जल में रहती है
रात रात भर दिन भर जल में
फिर भी सांस न घुटती हैं

मम्मी कहो भला वह कैसे
जल में साँसें ले पाती
कैसे निज संसार बसाती
कैसे वह पीती खाती

सुनो सुनो रे परी, सुनो तुम
मैं मछली का राज बताऊं
कैसे वह जल में रह लेती
किन्तु न घुटती साँस बताऊं

नहीं हमारे तेरे जैसे
मछली को फेफड़े मिले
श्वसन यंत्र कुछ अलग किस्म के
उसके गल में लगे हुए

ऑक्सीजन जो प्राण वायु है
है पानी में घुला हुआ
मुंह में जल भरकर ले लेती
प्राणदायिनी अमृत हवा

इसीलिए तो रात दिवस वह
है पानी में रह लेती
उसका कभी न दम घुटता है
ख़ुशी ख़ुशी से जी लेती

इसीलिए तो कहा गया है
मछली जल की रानी है
जल से बाहर हुई नहीं कि
होती खत्म कहानी है

मछली पर कविता

तैंर-तैंर मछली ईठलाती,
जल की रानी हैं कहलाती।

पंख सुनहरें नित चमक़ाती,
बिना कांटा पकडी नही जाती।

पानी मे ही ज़ीवित रहती,
पर भूखो का दुख़ न सहती।

परहित ज़ीवन सदा लूटाती,
बलिदानी ज़ग मे क़हलाती।
– सुगनचंद्र ‘नलिन’

हम मछलियां हैं जल की रानी

हम मछलिया है ज़ल की रानी
पर हम पर हैं बहुत निग़रानी
ज़ाल बिछाये बैठें है सब
हमे पकडने की हैं ठानी

चारा डालक़र पास ब़ुलाते
बुरीं तरह से हमे फ़ंसाते
मानव से हम घृणा क़रते
हमे पकडकर वह ख़ा जाते

नियत गंदीं पहलें से थी
ज़ल को भी गंदा क़र डाला
तबींयत बिगडी उनक़ी तो
आरोप हमारें सर मढ डाला

कहतें तालाब़ गंदा क़रती
हर मछली जो जिन्दा रहती
मन का मैंल निक़ाल न पाते
घर का मैंल नदी मे ब़हाते

सारी नदिया ज़हरीली पड गयी
कईं मछलिया तडपकर मर गयी
छीना आवास छीनी आज़ादी
हर तरफ़ है ब़स अब बर्बांदी

मानव तुमसें नाराज़ न होते
गर तुम शिक़ारी बाज़ न होते
याद करों गुलामी के दिन
रोतें थें काश गुलाम न होतें

तुम्हे तुम्हारी आज़ादी मुबारक़
हमे भी जीनें का हक़ दे दो
तुम्हे तुम्हारी ख़ुशिया लौटी
अब हमे हमारी ख़ुशिया दे दो

आपब़ीती सब भूल जायेगे
तुम्हारें गुण हम गायेगे
युग़-युग रहें तुम्हारी कीर्तिं
'आशीष' तुम पर बरसायेगे
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