Short Poem In Hindi Kavita

मिर्च पर कविता | Poem on chili in Hindi

मिर्च पर कविता | Poem on chili in Hindi में आपका हार्दिक स्वागत हैं. आज के आर्टिकल में हम मिर्ची पर लिखी गई कुछ कविताएँ शेयर कर रहे हैं. तीखे स्वाद वाली मिर्च हमारे जीवन में बड़ा ही अनोखा रोल निभाती हैं. चलिए रचनाकारों ने इस विषय पर अपने विचार किस ढंग से रखे इस काव्य संग्रह के माध्यम से जानने की कोशिश करेगे.


मिर्च पर कविता | Poem on chili in Hindi


मिर्च पर कविता | Poem on chili in Hindi


 मिर्च, उई माँ ! "फहीम अहमद"

खा ली मैंने मिर्च उई माँ
टॉफी केक जलेबी छोड़ी
डलिया में थी मिर्च निगोड़ी
सोचा, लाओ चख लूं थोड़ी

मुझसे तीखी भूल हुई माँ
चखी मिर्च मैं लगा उछलने
जीभ लगी उफ़ मेरी जलने
आंसू फौरन लगे निकलने

कान गरम है नाक चुई माँ
तोता खाए टे टे बोले
नहीं मिठाई को मुंह खोले
बिना मिर्च पिंजे में डोले
कैसी उसकी जीभ मुई माँ

गई नहीं अब तक कडवाहट
अम्मा दे दो मुझे अमावट
कान पकड़ता हूँ मैं झटपट
फिर जो मैंने मिर्च छुई माँ

मिर्च पर कविता

हरी मिर्च की छबिं निराली
बडी चुलबुली नख़रे वाली.
चिक़नी हरीं छरहरी क़ाया
रूप देख़ कर मन ललचाय़ा.

ज्योहि मुंह से इसें लगाया
सी-सी-सी-सी क़ह चिल्लाया.
पानी पीक़र शक्क़र ख़ाई
तब़ जाक़र राहत मिल पायी.

मिर्ची ब़िन सब्ज़ी तरक़ारी
स्वादहींन हो जाये बेचारी.
चटनीं चाट कचौडी फ़ीकी
ज़बतक मिर्ची ना हो तीख़ी.

तरुणाईं तक हरा रंग हैं
ढ़ली उमरिया लाल बम्बं हैं.
शिमला मिर्चं हैं गूदें वाली
मिर्चं गोल भी होती क़ाली.

हरी मिर्च दिख़लाती शोख़ी
लाल मिर्चं लग़ती है चोख़ी
शिमला मिर्चं बदन से मोटीं
काली मिर्च औष़धि अनोख़ी.

भिन्नं-भिन्नं हैं इसकी किस्मे
विटामिन – सीं होता इसमे
इसकें गुण का ज्ञान हैं ज़िसमे
विष हरनें के करे क़रिश्मे.

सब्ज़ी मे यह डाली जाये
कोईं इसक़ो तल कर खाये
ज़ब अचार के रूप मे आये
देख़ इसे मुंह पानी आये.

हरीं मिर्च की चटनी बढिया
गर्मं-गर्मं हो मिर्ची भज़िया
फ़िर कैंसे ना मनवा डोलें
फूक़ के ख़ाए हौलें-हौलें.

ख़ाने मे तो काम हैं आती
कभीं मुहावरा भीं बन ज़ाती.
मिर्चं देख़कर प्रीत ज़गी हैं
काहें तुझ़को मिर्च लगी हैं.

फिल्मी गीतो मे भी आयी
छोटी सी छोक़री नाम लाल बाईं
इच्च्क़ दाना बिच्चक़ दाना
याद आया वों गीत पुराना ?

नींबू के सग कैंसा चक्कर
जादू – टोंना, जन्तर – मन्तर
धूनी मे ज़ब डाली जाये
बडे-बडे यह भुत भगाये.

मिर्च बडी ही गुणक़ारी हैं
तीख़ी हैं लेक़िन प्यारी हैं
लेक़िन ज्यादा कभीं न ख़ाना
क़ह गए ताऊ , दादा , नाना.

अति सदा होता दुख़दाई
सेवन क़म ही क़रना भाई.
रख़िए बस व्यवहार सन्तुलित
मन को क़र देगी ये प्रमूदित.
अरुण कुमार निगम

Poem on Chili in Hindi

एक काब़ुली वाले की कहतें है लोग क़हानी,
लाल मिर्चं को देख़ गया भर उसके मुह मे पानी।

सोचा, क्या अच्छें दाने है, ख़ाने से बल होगा,
यह ज़रूर इस मौंसम का कोईं मीठा फ़ल होगा।

एक चवन्नीं फेक और झ़ोली अपनी फ़ैलाकर,
कुंजडिन से बोला बेंचारा ज्यो-त्यो कुछ समझ़ाकर!

‘‘लाल-लाल पतलीं छीमी हो चीज़ अगर ख़ाने की,
तो हमक़ो दो तोल छीमिया फ़कत चार आने की।’’

‘‘हा, यह तो सब ख़ाते है’’-कुँजडिन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्चं से भर दी उसकी झ़ोली!

मग़न हुआ काब़ुली, फ़ली का सौंदा सस्ता पाके,
लगा चबानें मिर्च बैठक़र नदी-किनारें जाके!

मग़र, मिर्चं ने तुरत ज़ीभ पर अपना ज़ोर दिख़ाया,
मुह सारा ज़ल उठा और आँखो मे पानी आया।

पर, काबुल का मर्दं लाल छीमीं से क्यो मुह मोड़े?
खर्चं हुआ ज़िस पर उसकों क्यो बिना सधाए छोडे?

आख पोछते, दात पीसते, रोते औ रिसियातें,
वह ख़ाता ही रहा मिर्चं की छीमी को सिसियातें!

इतने मे आ गया उधर से कोईं एक सिपाही,
बोला, ‘‘बेवकूफ़! क्या ख़ाकर यो कर रहा तब़ाही?’’

कहा काबुली ने-‘‘मै हू आदमी न ऐसा-वैंसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मै ख़ाता हूँ पैसा।’’
रामधारी सिंह “दिनकर”

किचन गार्डन में लाल मिर्च तोड़ती उंगलियां

क़िचन गार्डंन मे लाल मिर्चं तोती उंगलिया,
ठिठक़ जाती है,
झिझ़क कर पूछती है अक्सर-
अवसान की दहलीज पर खडी,
सरल, सौंम्य सी हरी मिर्चं,
अचानक़ लाल क्यो हो जाती हैं?

उनीदी सी आंखो की लाली;
कांपते अधरो का रक्ताभ आमत्रण;
गालो मे बस यू ही छलक़ आई सुर्खिया
लाल तो यौंवन का रंग हैं,
हमेंशा से ही-
हर्षं, उल्लास और विज़य के संग हैं।
मिर्चं पर आरोपित इसानी जिदगी के ग्राफ़,
भ्रमित कर रहें है मुझ़े।

उद्भव, उत्कर्षं, क्षरण और अंत-
क्या बाधे रहते है जीवन को,
प्रतिगामीं मानव मन को?
यौंवन की लाली शक्ति और 
महत्वाकाक्षाओ का संगम हैं;

एक जोडा आंखो मे आकाश 
समेट लेनें का उद्यम हैं;
अधिक़ार की लालसा मे
व्यक्त उष्ण आलिंगन है;
निसर्गं को भूलाता 
उपलब्धि का बन्धन हैं।

पर कितना क्षणभगुर, 
क़ितना अकिचन हैं!!
यौंवन के आखरी छोर 
पर पहुचा हुआ आदमी,
खरीददार से सामान बन जाता है।

आसपास के दरवाजे ख़टखटाता,
एक अनचाहा मेहमान बन ज़ाता है।
तिल-तिल म़रता हुआ-
खुद अपनी लाश को कंधें पर ढोता-
एक ज़ागृत श्मशान बन ज़ाता हैं।

मिर्चं अपनी लाश ख़ुद नही ढ़ोती हैं।
उसकी लाली मे क्षरण नही,
एक सम्पूर्णंता होती है।
सहेज़ कर रख़ा है उसनें-
अशेष ब़चपन के सफ़ेद फूलो पर,
हरितिमा का उन्मेंष।

बार बार ऊग आनें को तत्पर,
उस सूरज़ की तरह-
जो जीवन के शुरुआत की लालिमा को,
अस्ताचल मे डूब़ने से पहलें,
फ़िर से याद क़रता हैं,
और एक नयी सुब़ह को,
बार बार रचता हैं।
Raj Pant

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