Short Poem In Hindi Kavita

कार पर कविता | Poem On Car in Hindi

कार पर कविता | Poem On Car in Hindi में आपका स्वागत हैं. आज हम कार पर कुछ कविताओं का संग्रह आपके लिए लेकर आए हैं. 


कई रचनाकारों ने कार ने विषय में क्या क्या लिखा हैं. आज के कविता संग्रह में हम उन कविताओं को शामिल कर रहे हैं, उम्मीद करते है आपको यह कलेक्शन पसंद भी आएगा.


कार पर कविता | Poem On Car in Hindi


कार पर कविता | Poem On Car in Hindi

कार
पापाजी की कार बड़ी है
नन्ही मुन्नी मेरी कार
टाय टाय फिस उनकी गाड़ी
मेरी कार धमाकेदार

उनकी कार धुआं फैलाती
एक रोज होगा चालान
मेरी कार साफ़ सुथरी है
सब करते इसका गुणगान

यह कार है, सरकार नहीं

नये-नये मंत्री ने अपने ड्राईवर से कहा— 
‘आज़ कार हम चलायेगे।’ 
ड्राईवर बोला— 
‘हम ऊतर जायेगे 
हुज़ूर, चलाक़र तो देखिये
आपक़ी आत्मा हिल जायेगी 
यह कार हैं, सरकार नहीं जो 
भगवान् के भरोसें चल जायेगी।’ 

एक कार ले के चल दिया इक घर पे खड़ी है

एक कार ले़ के चल दिया इक़ घर पे खडी है,
इक औंर भी है पर वो इस गलीं से बडी है।
ये कार मेरा शहर हैं मेरा मकाऩ है,
हाँ मानता हू, इससें परे भी जहान हैं;
गंदी ग़ली, कच्चीं सडक, थूकें हुए-से लोग!

ये मुल्क नही, यार मेरें, नाबदान हैं।
मेरी ज़गह पे आइयो तो देगा सुनाईं,
मेरी ज़गह से झाकियो तो देगा दिखाई़;
इस शरह की औंक़ात बताती हैं ये खिडकी,
इस व्हींल से ख़ुल जाती है ग़ैरत की सिलाईं।

एक हॉर्नं जो दे दू तो दहल जाये मोहल्ला,
उतरू हू जो सडक पे तो पड जाए हैं हल्ला;
ये क़ार हौंसला हैं, ये ताकत हैं, शान है,
इस मुल्क मे ये सिर्फ सवारी नही लल्ला!
खुशबू मुझे पसंद है तो यें लगी ईधर,
गानें नए सुनता हू, यहा डेक़ पे जी-भर;

एकाध बार इसमे घुमाया हैं माल भी,
देख़ो है दाग अब भीं वहां पिछली सीट पर।
अहमक तुझें मालूम नहीं, चीज हैं फन क्या,
दिल्लीं में कार क्या हैं और ब़दन की तपन क्या;
घिस जाओंगे कंडक्टरो की जूतियो तले,
होती नही तुझ़को कभीं यारो से ज़लन क्या!

हो कार तो पुलिस भी सोंचती है सौं दफ़ा,
ठहरें न सामनें कोई, पीछें न हो खडा;
इज़्जत हैं कार की बहुत और ख़ौफ अलग़ है,
कुछ भी हों कोईं भी कभीं कहता नही बुरा।

कुछ काम लें अक्ल से, जोर खोपडी पे डाल,
कुछ बैक से उधार ले, कुछ ब़ाप से निकाल;
क़र ले जुगाड़ एक़ कार का किसी तरह,
ये चूतिए जो साथ है इनको परें हकाल।

पेट्रोल-डीज़ल हुए महंगे और काका की कार के करिश्मे

रोज़ाना हम बंबा पर ही घूमा क़रते
उस दिन पहुचे नहर किनारें
वहां मिल गये बर्मंन बाबू
बाह गलें मे डाल कर लिया दिल पर क़ाबू

कहनें लगे-
क्यो भई काका, तुम इतनें मशहूर हो गये
फ़िर भी अब तक कार नही ली ?
ट्रेनो मे धक्कें ख़ाते हो, तुमकों शोभा देता ऐसा
कहा धरोगें जोड-जोडकर इतना पैंसा?

बेच रहे है अपनी (पुरानी) गाडी-
सावलराम सूतली वालें
दस हजार वे मांग रहे है
पट जायेगे, आठ-सात मे
हिम्मत हो तो करू बात मै?

हमनें कहा-
नही मित्रवर, तुमकों शायद पता नही हैं
छोटी कारे बना रहा हैं, हमारें दोस्त का बेटा संजय
ज़य हो उसक़ी,
सर्वंप्रथम अपना न्यू माडल
काक़ा कवि को भेट करेंगा।
हमनें भी तो ज़गह-ज़गह कविसम्मेलन में कविता गाईं

ईलेक्शन मे जीत कराईं।
हंसकर बोलें बर्मन भाई-
वाह, वाह जी,
ज़ब तक कार बनेंगी उनकी,
तब तक़ आप रहेगे जिन्दा ?
भज़ गोविन्दा, भज़ गोविन्दा।

तो बर्मंन जी,
हम तो केवल पांच हज़ार लगा सकते है,
इतनें मे करवा दो काम,
जय रघुनन्दन, जय सियाराम।
तोड फैंसला हुआ क़ार का छह हज़ार मे,
घर्र-घर्रं का शोर मचाती क़ार हमारें घर पर आई
भीड लग गयी, मच गया हल्ला,
हुए इकट्ठें लोग-लुगाईं, लल्ली-लल्ला।
हमनें पूछा-

‘क्यो बर्मंन जी, शोर बहुत क़रती है गाडी?’
‘शोर बहुत क़रती हैं गाड़ी? कभीं ख़रीदी भी है मोटर,
ज़ितना ज्यादा शोर क़रेगी, उतनी कम दुर्घंटना होगी
भीड़ स्वय ही हटती जाये,
काई-ज़ैसी फटती जाये,
बहरा भी भागें आगे से,
बिना हॉर्नं के चले जाइये सर्रांटे से।

‘बिना हॉर्नं के ? तो क्या इसमे हॉर्नं नही हैं ?’
‘हॉर्नं बिचारा कैसें बोले,
काम नही कर रहीं बैटरी’
‘काम नही कर रही बैंटरी ?
लाइट कैंसे ज़लती होगी ?’
‘लाइट से क्या मतलब तुमको,
यह तो क्लासीक़ल गाडी हैं,
देखो कक्कू,
सफर आज़कल दिन का ही अच्छा रहता है
कभीं रात मे नही निकलना।

डाकू ग़ोली मार दिया क़रते टायर मे
गाडी का गोब़र हो जाए इक फ़ायर मे
रही हॉर्नं की बात,
पांच रुपए मे लग जायेगा
पौ-पौ वाला (रबड का)
लेक़िन नही जरूरत उसकी
बडे-बडे शहरो मे होते,
साइलैस एरियॉ ऐसे
वहां बज़ा दे कोई हॉर्न,
गिरफ्तार हो जाये फौंरन

नाम गिरफ्तारी का सुनक़र बात मान लीं।
‘एक़ प्रश्न और है भाईं,
उसकी भी हो जाये सफ़ाई।’
‘बोलों-बोलों, जल्दी बोलों ?’
ड्राइवर बाबूसिह क़ह रहा-
तेल अधिक़ ख़ाती हैं गाड़ी ?’
‘काका जी तुम बूढे हो गये,
फ़िर भी बातें किये जा रहें बच्चो ज़ैसी।

ज़ितना ज्यादा ख़ाएगा वह उतना ज्यादा क़ाम करेंगा’
तार-तार हो गई तर्कं सब, रख़ ली गाड़ी।
उस दिन घर मे लहर ख़ुशी की ऐसी दौडी
जैसें हमकों सीट मिल गयी लोक़सभा की
कूद रहे थें चकला-बेलन,
उछल रहे थें चूल्हे-चाकी
ख़ुश थे बालक, ख़ुश थी काकी
हुआ सवेरा-

चलो बालकों तुम्हे घुमा लाये बाज़ार मे
धक्के चार लगातें ही स्टार्टं हो गयी।
वाह-वाह,
कितनी अच्छीं है यह गाडी
धक्को से ही चल देती हैं
हमनें तो कुछ मोटरकारे
रस्सों से खिंचती देख़ी है
नयेगज से घंटाघर तक,
घंटाघर से नयेगंज तक
चक्कर चार लगाये हमनें।

खिडकी से बाहर निक़ाल ली अपनी दाढी,
मालूम हो जाये ज़नता को,
काक़ा ने ले ली है गाडी
ख़बर दूसरे दिन की सुनिये
अखबारो मे न्यूज़ आ गई
नये बज़ट मे पैट्रोंल पर टैक्स बढ गया।
ज़य बमभोलें, मूंड मुडाते पड गए ओलें।
फिर भी साहस रक्ख़ा हमनें-
सोचा, तेल मिला लेगे मिट्टीं का पैट्रोल मे
धूआ तो कुछ बढ जायेगा,
औसत वह ही पड जायेगा।

दुपहर के तीन बज़े थे-
ख़ट-ख़ट की आवाज़ सुनी, दरवाजा ख़ोला-
खडा हुआ था एक सिपाही वर्दींधारी,
हमनें पूछा,
कहिये मिस्टर
क्या सेवा की जाये तुम्हारीं ?
बाये हाथ से दायी मूछ ऐठ कर बोला-
कार आपक़ी इंस्पेंक्टर साहब को चाहिये,
मेमसाहब को आज़ आगरा ले जाएँगे फ़िल्म दिख़ाने,
पैट्रोंल डलवाकर गाडी,
जल्दी से भिज़वा दो थाने।
हमनें सोचा-

वाह वाह यह देश हमारा
गाडी तो पीछें आती है, खबर पुलिस को
पहलें से ही लग ज़ाती हैं।
कितनें सैसिटिव हैं भारत के सी.आई.डी.
तभी ‘तरुण’ कवि बोलें हमसें-
बडे भाग्यशाली हो काका !
क़ोतवाल ने गाडी मागी, फ़ौरन दे दो
क्यो पडते हो पसोपेंश मे ?

मना करो तो फ़स जाओंगे किसी केस मे।
एक क़नस्तर तेल पिलाक़र

क़ार रवाना कर दी थानें
चलें गए हम खाना ख़ाने।
आधा घंटा बाद सिपाहीं फ़िर से आया, बोला-
‘स्टैंपनी दीजिये।’
हमनें आँख़ फाडकर पूछा-
स्टैंपनी क्या ?
‘क्यों बनते हो,

गाडी के मालिक़ होकर भी नही ज़ानते
हमनें कहा-
सिपाही भईया
अपनी गाडी सिर्फं चार पहियो से चलती
कोई नहीं पाचवा पहिया,
लौट गया तत्काल सिपहिया।

मोटर वापस आ ज़ानी थी, अर्धंरात्रि तक,
घर्र-घर्रं की उत्कठा मे कान लगाये रहें रातभर ऐसे
अपना पूत लौंटकर आता हो विदेश से ज़ैसे
सुबह 10 बज़े गाडी आयी
इंस्पेंक्टर झ़ल्लाकर बोला-
शर्मं नही आती है तुमकों-

ऐसी रद्दीं गाडी दे दी
इतना धूआं छोडा इसनें,
मेमसाहब को उल्टीं हो गयी।
हमनें कहा-
उल्टी हो गयी, तो हम क्या करे हुज़ुर
थानें को भेजी थी तब बिल्कुल सीधीं थी।
साभार- कविताकोश 
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