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करेले पर कविता | Poem on Bitter gourd in Hindi

करेले पर कविता | Poem on Bitter gourd in Hindi नमस्कार दोस्तों यदि आप वेब पर Bitter gourd   Poems से सम्बंधित कविताओ की खोज में है, तो आज का यह हमारा आर्टिकल आपके लिए उपयुक्त है. इस आर्टिकल में हम आपके लिए करेले से जुडी कुछ कविताए लेकर आए है. 

यह कविताए करेले के आपके साथ परिचय करवाएगी इस आर्टिकल में हम आपके समक्ष करेले की विभिन्न शीर्षक वाली कविताएँ आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे है. आशा है, आपके लिए उपयोगी होगी.

करेले पर कविता | Poem on Bitter gourd in Hindi

 सोच रहा था एक करेला

सोच रहा था एक करेला
सब्जी मंडी जो भी आए
आलू अदरक प्याज तुलाए
मुंह लटकाए मेरा ठेला

पहले छीलो नमक लगाओ
जरा धूप में उसे सुखाओ
मेरी सब्जी का बड़ा झमेला

बिल्लू खाए नाक चढ़ाए
पिंकी को भी तनिक न भाए
फ्रिज में रहता पड़ा अकेला

डायबिटीज में मैं गुणकारी
दूर करूं मोटापा भारी
हरा भरा सेहत का मेला

दादी माँ ही मुझे पकाती
दादाजी को रोज खिलाती
खिल जाता तब मैं अलबेला
सोच रहा था एक करेला

कटहल कद्दू और करेला

कटहल कद्दू और करेला
गये घूमने मेला
जमकर खूब मिठाई खाई
पास न पैसा धेला
पकड़ लिया तब हलवाई ने
पैसा अभी निकालो
वरना सभी कड़ाही मांजो
और मिठाई खालो
है मंजूर खिलाओ पहले
हमको खूब मिठाई 

सच तो कड़वा करेला है

लिखने को कह दो तो मैं लिख दूंगा,
बड़ा-सा कड़वा सच में करेला है।
पढ़ फाड़ चले तुम राह पकड़,
पर इसको तो कलम ने ही झेला है।

झूठ की पनपतीं दुनिया में,
सच सुबक रहा दुबक-दुबक कर.
मैं खोल कहूँ क्या अब लिख दूं,
दुनिया झूठों का है करेला.

हां माना मैंने मैं लिखता हूं,
माना कि मै जिम्मेदारी हूँ ,
ये कहदे तो साथ न छोड़े हम ,
छोड़ दो इसे यह बड़ा झमेला है।

यहाँ खेल कबड्डी चलता है,
यहाँ रेत में करेला पलता है,
है, यह एक लकीर जो बांट रही।
कि ना तुम दोषी ना मैं दोषी,
खेला यह खेल जमकर सबने ही खेला है।

यह मानव बन बैठा है दानव,
धुले कपड़े हैं, साफ रहे।
है, यह मानवता का भान नहीं,
लगता यहां बस मेला है।

जो कल तक भूखा था, वो भूखा है,
जो थाली रोटी बिन सूख रही है,
किसने पूछा उसे हाल ज़रा,
बैठा फुटपाथ अकेला है, जो।

कहते है, मेहनत है, पूजा,
फल का भी स्वाद भी तो मीठा है।
जो ईमान पकड़ के भी जो ज़िंदा है,
वही खींच रहा ठेला है.

सपनों में मेले लगते हैं,
अरमान बिकने लगते है,
जो स्वप्नहीन की ये भीड़ खड़ी,
तुमने ये कहां धकेला है, मुझे।

लिखने बैठा जो भोर कभी,
थी पर सूरज का दबिश नहीं।
बोलो फिर से क्या झूठ कहूं फिर ,
हां होती यही सुबह की बेला है..।
 रजनीश "स्वच्छंद"

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प्रिय दर्शको उम्मीद करता हूँ, आज की हमारी कविताएँ करेले पर कविता | Poem on Bitter gourd in Hindi आपको पसंद आई होगी यदि कविताएँ अच्छी लगी तो इसे अपने दोस्तों के साथ साझा करें.

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