Short Poem In Hindi Kavita

घर पर कविता | Home Poem in Hindi

घर पर कविता | Home Poem in Hindi में आपका स्वागत हैं. आज हम अपने घर पर लिखी गई बेहतरीन हिंदी कविताएँ आपके साथ शेयर कर रहे हैं. स्वर्ग से भी सुंदर अपने घर पर लिखी पंक्तियाँ आपको जरुर पसंद आएगी.


घर पर कविता | Home Poem in Hindi


घर पर कविता | Home Poem in Hindi


 मेरा घर

मुझकों ऊंची मिले हवेली
या मिल जाए राजमहल
छप्पर की कुटिया हो चाहे
वृक्षों की छाया शीतल

मेरा घर ये नहीं बनेंगी
चाहें हो कितनी सुंदर
मेरी माँ जिस जगह रहेगी
वहीं बनेगा मेरा घर

अपना घर " विजय बहादुर सिंह"

सबसे अच्छा अपना घर
अपने घर पर है बिस्तर

छाया हरी भरी इसकी
मीठे मीठे इसके फर

आ जाना चुपचाप यहाँ
थक जाना तुम कभी अगर

धूप का जंगल एक कुआं
प्यास तुम्हारी लेगा हर

जानी पहचानी पोथी
जाने पहचाने अक्षर

जो चाहे जब आ जाना
क्षितिजों की सीमा छूकर
अपने घर पर है बिस्तर

सबका प्यारा घर

सदा यही तो कहती हो माँ
घर यह सिर्फ हमारा अपना
लेकिन माँ कैसे मैं मानूँ
घर तो यह कितनों का अपना?

देखो तो कैसे ये चूहे
खेल रहे है पकड़म पकड़ी
कैसे मच्छर टहल रहे हैं
कैसे मस्त पड़ी है मकड़ी

और छिपकली को तो देखो
चलती है जो गश्त लगाती
अरे कतारें बाँधे बाँधे
चींटी चींटी दौड़ी जाती

और उधर आंगन में देखो
पंछी कैसे झपट रहे हैं
बिल्कुल दीदी और मुझ जैसे
किसी बात पर झगड़ रहे हैं

इसीलिए तो कहता हूँ माँ
घर न समझो सिर्फ हमारा
सदा सदा से जो भी रहता
सबका ही है घर यह प्यारा

घर :अजय जनमेजय"

लकड़ी पत्थर ईंटों से
नहीं कभी घर बनता है

मम्मी से ही घर है घर
पापा से ही दर है दर
अगर नहीं मम्मी पापा
तिनका तिनका इधर उधर
यानी मम्मी पापा से
ही केवल घर बनता है

लकड़ी पत्थर ईंटों से
नहीं कभी घर बनता हैं

मेरे घर में

मेरे घर में हुई पुताई
भैया! समझो शामत आई
पूरे घर में मचा झमेला
बच्चे बड़े सभी ने झेला
कमरे किए जब खाली
सबसे ही मेहनत करवा ली

पापा तब आए उलझन में
कितना झुंझलाए थे मन में
कैसे बाहर हो अलमारी
कहाँ रखे ये चीजे सारी
बाहर सब सामान निकाला
घर लगता था गडबडझाला
हुआ कहीं गुम मेरा बस्ता

खोज खोज हालत थी खस्ता
गद्दे में जब उसको पाया
चैन तब कहीं जाकर आया
सात दिनों तक हुई पुताई
घर में फिर रौनक थी आई
फिर से सब सामान सजाया
हिप हिप हुर्रे सबने गाया

घर पूछता है

घर पूछता हैं,
अक्सर यह सवाल,
क्या ज़ाना हैं तुमनें,
कभीं मेरा हाल?

या फ़िर समझ़ लिया,
ईट, पत्थर, गारे का
बुत बेजबान, मकबरें सा
जो हो दींदार-ए-आम!

पीढ़िया दर पीढिया,
जो चढ़ी मेरी सीढिया,
आज नही देखे कभीं,
मेरे जर्जंर हालात को।

बचपन की ख़ेली थी,
खूब मैने अठ्ठखेलिया,
जवानीं मे भी,कान्हा संग
नाचीं थी अनेक़ गोपियां।

दूल्हा बना, घोडी चढा,
बारात मे की कई मैने मस्तियां,
मुह दिख़ाई, फिर गोद भराईं,
फिर से बचपन था मै जिया।

पइयां पइयां तू चला,
फ़िर साईकिल का चक्का बढा,
क़ार के नीचें कभीं न,
तूनें पांव था अपना धरा।

फ़िर समय का वही,
चक्का चला,
निरंतर आगे तू बढ़ा,
सपनें किये साकार फिर,
न कभीं तू पीछें मुडा।

मात-पिता जो है तेरें,
मन मे अपनें धीरज़ धरा,
तेरे नाम का दीया,
मेरे आंगन मे सदा ज़ला।

पर तू! क्या तुझें इसका,
भान है जरा।
यह न हो तेरें नाम का दीया,
बन जाये उनके अंतिम,
श्वास का दिया क्या हैं!

मै तो हू केवल,
ईट, पत्थर का एक़ ढांचा,
पर क्या नही हैं तुझें,
उनके प्रेम पर मान जरा सा?

कुछ तो दें ध्यान तू,
कर उनकें प्रेम का मान तू,
आज, हाँ आज़….

घर पूछता हैं,
यह सवाल,
क्या जाना हैं तुमनें,
कभीं मेरा हाल?
बोलों, कुछ तो बोलों,
क्या जाना हैं तुमनें,
कभीं मेरा हाल?
- अक्षुण्णया अनुरूपा

मेरा वो पुराना घर

मेरा वों घर ज़हाँ 
मेरा ब़चपन पला ,
वक़्त के साथ आज़ 
वो भी बूढा हो चला....

सुनी दीवारे आज़ भी 
राह ताक़ती है...
कभीं बन्द खिडकी तो कभीं 
बन्द दरवाज़ो से झाकती है....

बडा सा वो आंगन भी 
आज़ वींरान पड़ा हैं...
कहीं घास कही पत्तो तो 
कही मिट्टीं से घिरा है...

ज़िसके हर कोनें को था 
कभीं बड़े प्यार से सज़ाया...
आगे बढने की दौड मे 
ज़िसे पीछें छोड आया....

ख़्वाहिश है कि...
भाग़ती ज़िदगी से कुछ 
वक्त निक़ाल पाऊ....
सुकुन के कुछ लम्हें फ़िर 
उस घर मे बींता पाऊ....

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