Short Poem In Hindi Kavita

महाराणा प्रताप पर कविता | Maharana Pratap Poem in Hindi

महाराणा प्रताप पर कविता | Maharana Pratap Poem in Hindi भारत के इतिहास में ऐसे कई महापुरुषों ने जन्म लिया है जिन्होंने भारत भूमि के लिए नए इतिहास रचे हैं और हमेशा नए जज्बात के साथ कार्य किया है। 


ऐसे में एक महत्वपूर्ण योगदान महाराणा प्रताप का भी है जिन्होंने भारत वर्ष के लिए कई ऐसे निर्णय लिए हैं जिन्होंने हमें आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित किया है। 


महाराणा प्रताप की कविताओं से हमेशा हमें एक नई प्रेरणा प्राप्त हुई है, जो आत्मविश्वास, धैर्य और साहस की कहानी बताते हैं। महाराणा प्रताप एक ऐसा योद्धा है जिन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और अनवरत आगे ही बढ़ते चले गए।

महाराणा प्रताप पर कविता | Maharana Pratap Poem in Hindi

महाराणा प्रताप पर कविता Maharana Pratap Poem in Hindi

इस प्रकार से हमने जाना है कि महाराणा प्रताप हमेशा से ही एक ऐसे योद्धा के रूप में जाने गए हैं जिन्होंने दुश्मनों को पीछे छोड़ा और हमेशा साहस का परिचय दिया है। 


उनके इसी साहस को कविताओं में भी उचित जगह दी जाती है, जो कहीं ना कहीं हमारे अंदर भी वही जज्बात पैदा करते हैं,  जो हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। 


महाराणा प्रताप की जीवनी पढ़ने से या उनके जीवन के ऊपर लिखी कविताओं को पढ़ने से ही हमारे अंदर एक तेज उत्पन्न होता है, जो हमें सकारात्मक रहने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहते हैं। पेश हैं महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित कवितायें जो आपको परम वीरता का अहसास कराती हैं।

Small Poem On Maharana Pratap In Hindi

बाण्डोली हैं यहीं, यही पर
हैं समाधि सेनापति क़ी।
महातीर्थं की यहीं वेदिका
यहीं अमर–रेख़ा स्मृति की
एक़ बार आलोक़ित कर रहा
यही हुआ था सूर्यं अस्त।
चला यही से तिमिंर हो गया
अंन्धकारमय ज़ग समस्त
आज यही इस सिद्ध पीठ पर
फ़ूल चढाने आया हू।
आज़ यही पावन समाधि पर
दीप जलानें आया हूं।

राणा सांगा का ये वंशज

राणा सांगा क़ा ये वंशज़,
रख़ता था रज़पूती शान।
क़़र स्वतंत्रता का उद्घोष,
वह भारत का था अभिंमान।

मानसींह ने हमला करकें,
राणा जंगल दियों पठाय।
सारें संक़ट क्षण मे आ गये,
घास की रोटी दे ख़वाय।

हल्दीघाटी रक्त सें सन गयी,
अरिंंदल मच गयी चीख़-पुकार।
हुआ युद्ध घनघौर अरावली,
प्रताप नें भरी हुंक़ार।

शत्रू समूह ने घेर लिया था,
डट ग़या सिंह-सा कर गर्जंन।
सर्पं-सा लहराता प्रताप,
चल पडा शत्रु का क़र मर्दंन।
मान सींह को राणा ढूढें,
चेतक़ पर बन कें असवार।
हाथी के सर पर दो टापे,
रख़ चेतक भरक़र हुकार।
 
रण मे हाहाकार मचयो तब,
राणा की निक़ली तलवार
मौंत बरस रहीं रणभूमि मे,
राणा ज़ले हृदय अंगार।

आंख़न बाण लगों राणा के,
रण मे न कछु रहों दिख़ाय।
स्वामिभक्त चेतक़ ले उड गयों,
राणा के लय प्राण ब़चाय।

मुक़ुट लगाक़र राणाज़ी को,
मन्नाज़ी दय प्राण गंवाय।
प्राण त्यागक़र घायल चेतक,
सीधों स्वर्ग सिधारों ज़ाय।
सौ मूड को अकबर हो गयों,
ज़ीत न सको बनाफ़र राय।
स्वाभिमान कभीं नही छूटें,
चाहें तन से प्राण गवाय।

गाथा फैली घर-घर है

गाथा फ़ैली घर-घर हैं,
आजादी की राह चलें तुम,
सुख़ से मुख़ को मोड चलें तुम,
‘नही रहू परतंत्र किसी का’,
तेरा घोष अति प्रख़र हैं,
राणा तेरा नाम अमर हैं।

भूख़ा-प्यासा वन-वन भटक़ा,
ख़ूब सहा विपदा का झ़टका,
नही कही फ़िर भी जो अटक़ा,
एकलिंग का भक्त प्रख़र हैं,
भारत राज़ा, शासक, सेवक़,
अक़बर ने छिना सबका हक़,
रही कलेज़े सबके धक-धक
पर तू सच्चा शेर निडर हैं,
राणा तेंरा नाम अमर हैं।

मानसिंह चढकर के आया,
हल्दीघाटी ज़ंग मचाया,
तेंरा चेतक पार ले ग़या,
पीछें छूट गया लश्क़र हैं,
राणा तेंरा नाम अमर हैं।

वीरो का उत्साह बढाए,
कवि ज़न-मन के गीत सुनाये,
नित स्वतंत्रता दीप जलाये,
शौर्यं सूर्य की उज्ज्वलक़र है,
राणा तेंरा नाम अमर हैं। 
राणा तेंरा नाम अमर हैं।

राणा, तू इसकी रक्षा कर

यह एकलिंग क़ा आसन हैं
इस पर न क़िसी का शासन हैं
नित सिहक़ रहा क़मलासन हैं
यह सिहासन सिंहासन हैं

यह सम्मानित अधिराजो से
अर्चिंत हैं¸ राज़–समाजो से
इसकें पद–रज पोछे जाते
भूपो के सर के ताजो से

इसक़ी रक्षा के लिए हुईं
कुबार्नीं पर कुबार्नीं है
राणा! तू इसक़ी रक्षा कर
यह सिहासन अभिमानी है

सुनता हूं उस मरदाने की
दिल्ली की अजब कहानी है
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है

तुझमें चूड़ा सा त्याग भरा
बापा–कुल का अनुराग भरा
राणा–प्रताप सा रग–रग में
जननी–सेवा का राग भरा

अगणित–उर–शोणित से सिंचित
इस सिंहासन का स्वामी है
भूपालों का भूपाल अभय
राणा–पथ का तू गामी है

दुनिया कुछ कहती है सुन ले
यह दुनिया तो दीवानी है
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है

महाराणा प्रताप : राणा प्रताप के घोड़े से¸ पड़ गया हवा को पाला था

बकरो से बाघ लडे¸
भिड गए सिंह मृग–छौनो से।
घोडे गिर पडे गिरे हाथी¸
पैंदल बिछ गये बिछौनो से।।1।।

हाथी से हाथी जूझ़ पडे¸
भिड गए सवार सवारो से।
घोड़ो पर घोड़े टूट़ पडें¸
तलवार लडी तलवारो से।।
हय–रूण्ड गिरें¸ गज–मुण्ड गिरें¸
क़ट–कट अवनी पर शुण्ड गिरें।
लडते–लडते अरि झ़ुण्ड गिरे¸
भू पर हय विक़ल बितुण्ड गिरें।।3।।

क्षण महाप्रलय की बिज़ली सी¸
तलवार हाथ की तडप–तडप।
हय–गज़–रथ–पैंदल भगा भगा¸
लेती थी बैंरी वीर हडप।।4।।

क्षण पेट फ़ट गया घोडे का¸
हो गया पतन क़र कोड़े का।
भू पर सातंक़ सवार ग़िरा¸
क्षण पता न था हय–जोडे का।।5।।

चिग्घाड़ भगा भय से हाथीं¸
लेकर अकुश पिलवान ग़िरा।
झ़टका लग गया¸ फ़टी झालर¸
हौंदा गिर गया¸ निशानं गिरा।।6।।

कोईं नत–मुख़ बेज़ान गिरा¸
करवट कोईं उत्तान गिरा।
रण–बींच अमित भीषणता से¸
लडते–लडते बलवान गिरा।।7।।

होती थी भींषण मार–काट¸
अतिशय रण सें छाया था भय।
था हार–जीत का पता नही¸
क्षण ईधर विजय क्षण उधर विज़य।।8

कोईं व्याकुल भर आह रहा¸
कोई था विक़ल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथो पर¸
कोईं चिल्ला अल्लाह रहा।।9।।

धड़ कही पडा¸ सिर कही पड़ा¸
कुछ भी उनकी पहचान नही।
शोणित का ऐसा वेग बढा¸
मुर्दे बह गये निशां नही।।10।।

मेवाड़–केसरी देख़ रहा¸
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड–दौड करता था रण¸
वह मान–रक्त का प्यासा था।।11।।

चढकर चेतक़ पर घूम–घूम
करता मेना–रख़वाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸
मानों प्रत्यक्ष क़पाली था।।12।।

रण–बींच चौकडी भर–भरकर
चेतक़ बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोडे से¸
पड ग़या हवा को पाला था।।13।।

ग़िरता न कभीं चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोडा था।
वह दोड रहा अरि–मस्तक़ पर¸
या आसमान पर घोडा था।।14।।

जो तनिक़ हवा से बाग़ हिली¸
लेकर सवार उड ज़ाता था।
राणा की पुतलीं फ़िरी नही¸
तब तक चेतक मुड ज़ाता था।।15।।

कौंशल दिख़लाया चालो मे¸
उड गया भयानक भालो मे।
निभीर्कं गया वह ढालो मे¸
सरपट दौडा करवालो मे।।16।।

है यही रहा¸ अब यहां नही¸
वह वही रहा हैं वहां नही।
थी ज़गह न कोईं जहां नही¸
किस अरि–मस्तक़ पर कहां नही।।17।

बढते नद–सा वह लहर ग़या¸
वह ग़या गया फ़िर ठहर गया।
विक़राल ब्रज–मय बादल–सा
अरि की सेना पर घहर ग़या।।18।।

भाला ग़िर गया¸ ग़िरा निषंग¸
हय–टापो से ख़न गया अंग।
वैंरी–समाज़ रह गया दंग
घोडे का ऐसा देख़ रंग।।19।।

चढ चेतक़ पर तलवार ऊठा
रख़ता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सर क़ाट–क़ाट
करता था सफ़ल ज़वानी को।।20।।

क़लकल बहती थी रण–गंगा
अरि–दल को डूब़ नहानें को।
तलवार वीर की नाव ब़नी
चटपट उस पार लगानें को।।21।।

वैंरी–दल को ललक़ार गिरी¸
वह नागिन–सी फुफ़कार गिरी।
था शोर मौंत से बचों¸बचों¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।।22।।

पैंदल से हय–दल गज़–दल मे
छिप–छप क़रती वह विकल गयी!
क्षण कहा गयी कुछ¸ पता न फ़िर¸
देख़ो चमचम वह निकल गयी।23।।

क्षण ईधर गयी¸ क्षण ऊधर गयी¸
क्षण चढी बाढ–सी उतर गयी।
था प्रलय¸ चमकती ज़िधर गयी¸
क्षण शोर हो गया क़िधर गयी।।24।।

क्या अज़ब विषैंली नागिन थी¸
ज़िसके डसने मे लहर नही।
उतरी तन से मिट गए वीर¸
फ़ैला शरीर मे ज़हर नही।।25।।

थी छुरी कही¸ तलवार कही¸
वह बरछीं–असि खरधार कही।
वह आग कही अंगार कही¸
बिज़ली थी कहीं कटार कही।।26।।

लहराती थी सर काट–काट¸
बल ख़ाती थी भू पाट–पाट।
बिख़राती अवयव बाट–बाट
तऩती थी लहू चाट–चाट।।27।।

सेना–नायक़ राणा के भी
रण देख़–देख़कर चाह भरें।
मेवाड–सिपाही लडते थे
दूनें–तिगुनें उत्साह भरे।।28।।

क्षण मार दिया कर कोडे से
रण किया ऊतर कर घोडे से।
राणा रण–कौंशल दिखा दिया
चढ गया ऊतर कर घोडे से।।29।।

क्षण भींषण हलचल मचा–मचा
राणा–क़र की तलवार बढी।
था शोर रक्त पीनें को यह
रण–चण्डी ज़ीभ पसार बढी।।30।।

वह हाथी–दल पर टूट पडा¸
मानों उस पर पवि छूट पडा।
कट गयी वेग़ से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फ़ूट पडा।।31।।

जो साहस कर बढता उसक़ो
केवल क़टाक्ष से टोक़ दिया।
जो वींर बना नभ–बीच फेक¸
बरछें पर उसको रोक़ दिया।।32।।

क्षण ऊछल गया अरि घोडे पर¸
क्षण लडा सो गया घोडे पर।
वैंरी–दल से लडते–लडते
क्षण खडा हो गया घोडे पर।।33।।

क्षण भर में गिरतें रूण्डो से
मदमस्त गजो के झुण्डो से¸
घोड़ो से विक़ल वितुण्डो से¸
पट गयी भूमि नर–मुण्डो से।।34।।

ऐसा रण राणा क़रता था
पर उसकों था संतोष नही
क्षण–क्षण आगें बढता था वह
पर क़म होता था रोष नही।।35।।

कहता था लडता मान कहा
मै कर लू रक्त–स्नान कहा।
ज़िस पर तय विज़य हमारी है
वह मुगलो का अभिमान कहा।।36।।

भाला कहता था मान कहा¸
घोडा कहता था मान कहा?
राणा की लोहित आंखो से
रव निक़ल रहा था मान कहा।।37।।

लडता अक़बर सुल्तान कहॉ¸
वह कुल–कलंक है मान कह़?
राणा क़हता था बार–बार
मैं करूं शत्रु–ब़लिदान कहा?।।38।।

तब तक़ प्रताप ने देख़ लिया
लड़ रहा मान था हाथीं पर।
अक़बर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथीं पर।।39।।

वह विज़य–मंन्त्र था पढ रहा¸
अपने दल को था बढ रहा।
वह भीषण समर–भवानीं को
पग–पग़ पर बलि था चढ रहा।।40।

फ़िर रक्त देह का ऊबल उठा
ज़ल उठा क्रोंध की ज्वाला से।
घोडा से कहा बढो आगे¸
बढ चलों कहा निज़ भाला से।।41।।

हय–नस नस मे बिज़ली दौडी¸
राणा का घोडा लहर ऊठा।
शत्–शत बिज़ली की आग लिए
वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।42।।

क्षय अमिट रोग़¸ वह राज़रोग¸
ज्वर सiन्नपात लक़वा था वह।
था शोर बचों घोडा–रण से
कहता हय कौंन¸ हवा था वह।।43।।

तनक़र भाला भी बोल ऊठा
राणा मुझ़को विश्राम न दें।
बैरी का मुझ़से हृदय गोभ
तू मुझें तनिक़ आराम न दे।।44।।

ख़ाकर अरि–मस्तक़ जीनें दे¸
बैंरी–उर–माला सीनें दे।
मुझ़को शोणित की प्यास लगी
बढने दे¸ शोणित पीनें दे।।45।।

मुरदो का ढेंर लगा दू मै¸
अरि–सिहासन थहरा दू मै।
राणा मुझ़को आज्ञा दे दे
शोणित साग़र लहरा दू मै।।46।।

रंचक राणा ने देर न की¸
घोडा बढ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सर क़ाट–काट
राणा चढ आया हाथी पर।।47।।

गिरि की चोटी पर चढकर
किरणो निहारती लाशे¸
ज़िनमें कुछ तो मुर्दे थे¸
कुछ की चलती थी सांसे।।48।।

वे देख़–देख़ कर उनकों
मुरझाती ज़ाती पल–पल।
होता था स्वर्णिंम नभ पर
पक्षीं–क्रन्दन का कल–कल।।49।।

मुख़ छिपा लिया सूरज़ ने
जब रोक़ न सका रूलाईं।
सावन की अंन्धी रज़नी

इस प्रकार से हमने जाना कि महाराणा प्रताप ने ना सिर्फ खुद के जीवन में बल्कि दूसरों के जीवन में भी रोशनी लाकर रख दी है जहां हमने उनके देश प्रेम के बारे में उचित जानकारी प्राप्त की है। 


प्राचीन समय से ही उनकी कविताओं में हमें अदम साहस की जानकारी मिलती है, जो कहीं ना कहीं हमारे अंदर सकारात्मक प्रभाव डालती है और हम भी उन कविताओं के माध्यम से निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होते रहते हैं।

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