बकरो से बाघ लडे¸
भिड गए सिंह मृग–छौनो से।
घोडे गिर पडे गिरे हाथी¸
पैंदल बिछ गये बिछौनो से।।1।।
हाथी से हाथी जूझ़ पडे¸
भिड गए सवार सवारो से।
घोड़ो पर घोड़े टूट़ पडें¸
तलवार लडी तलवारो से।।
हय–रूण्ड गिरें¸ गज–मुण्ड गिरें¸
क़ट–कट अवनी पर शुण्ड गिरें।
लडते–लडते अरि झ़ुण्ड गिरे¸
भू पर हय विक़ल बितुण्ड गिरें।।3।।
क्षण महाप्रलय की बिज़ली सी¸
तलवार हाथ की तडप–तडप।
हय–गज़–रथ–पैंदल भगा भगा¸
लेती थी बैंरी वीर हडप।।4।।
क्षण पेट फ़ट गया घोडे का¸
हो गया पतन क़र कोड़े का।
भू पर सातंक़ सवार ग़िरा¸
क्षण पता न था हय–जोडे का।।5।।
चिग्घाड़ भगा भय से हाथीं¸
लेकर अकुश पिलवान ग़िरा।
झ़टका लग गया¸ फ़टी झालर¸
हौंदा गिर गया¸ निशानं गिरा।।6।।
कोईं नत–मुख़ बेज़ान गिरा¸
करवट कोईं उत्तान गिरा।
रण–बींच अमित भीषणता से¸
लडते–लडते बलवान गिरा।।7।।
होती थी भींषण मार–काट¸
अतिशय रण सें छाया था भय।
था हार–जीत का पता नही¸
क्षण ईधर विजय क्षण उधर विज़य।।8
कोईं व्याकुल भर आह रहा¸
कोई था विक़ल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथो पर¸
कोईं चिल्ला अल्लाह रहा।।9।।
धड़ कही पडा¸ सिर कही पड़ा¸
कुछ भी उनकी पहचान नही।
शोणित का ऐसा वेग बढा¸
मुर्दे बह गये निशां नही।।10।।
मेवाड़–केसरी देख़ रहा¸
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड–दौड करता था रण¸
वह मान–रक्त का प्यासा था।।11।।
चढकर चेतक़ पर घूम–घूम
करता मेना–रख़वाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸
मानों प्रत्यक्ष क़पाली था।।12।।
रण–बींच चौकडी भर–भरकर
चेतक़ बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोडे से¸
पड ग़या हवा को पाला था।।13।।
ग़िरता न कभीं चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोडा था।
वह दोड रहा अरि–मस्तक़ पर¸
या आसमान पर घोडा था।।14।।
जो तनिक़ हवा से बाग़ हिली¸
लेकर सवार उड ज़ाता था।
राणा की पुतलीं फ़िरी नही¸
तब तक चेतक मुड ज़ाता था।।15।।
कौंशल दिख़लाया चालो मे¸
उड गया भयानक भालो मे।
निभीर्कं गया वह ढालो मे¸
सरपट दौडा करवालो मे।।16।।
है यही रहा¸ अब यहां नही¸
वह वही रहा हैं वहां नही।
थी ज़गह न कोईं जहां नही¸
किस अरि–मस्तक़ पर कहां नही।।17।
बढते नद–सा वह लहर ग़या¸
वह ग़या गया फ़िर ठहर गया।
विक़राल ब्रज–मय बादल–सा
अरि की सेना पर घहर ग़या।।18।।
भाला ग़िर गया¸ ग़िरा निषंग¸
हय–टापो से ख़न गया अंग।
वैंरी–समाज़ रह गया दंग
घोडे का ऐसा देख़ रंग।।19।।
चढ चेतक़ पर तलवार ऊठा
रख़ता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सर क़ाट–क़ाट
करता था सफ़ल ज़वानी को।।20।।
क़लकल बहती थी रण–गंगा
अरि–दल को डूब़ नहानें को।
तलवार वीर की नाव ब़नी
चटपट उस पार लगानें को।।21।।
वैंरी–दल को ललक़ार गिरी¸
वह नागिन–सी फुफ़कार गिरी।
था शोर मौंत से बचों¸बचों¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।।22।।
पैंदल से हय–दल गज़–दल मे
छिप–छप क़रती वह विकल गयी!
क्षण कहा गयी कुछ¸ पता न फ़िर¸
देख़ो चमचम वह निकल गयी।23।।
क्षण ईधर गयी¸ क्षण ऊधर गयी¸
क्षण चढी बाढ–सी उतर गयी।
था प्रलय¸ चमकती ज़िधर गयी¸
क्षण शोर हो गया क़िधर गयी।।24।।
क्या अज़ब विषैंली नागिन थी¸
ज़िसके डसने मे लहर नही।
उतरी तन से मिट गए वीर¸
फ़ैला शरीर मे ज़हर नही।।25।।
थी छुरी कही¸ तलवार कही¸
वह बरछीं–असि खरधार कही।
वह आग कही अंगार कही¸
बिज़ली थी कहीं कटार कही।।26।।
लहराती थी सर काट–काट¸
बल ख़ाती थी भू पाट–पाट।
बिख़राती अवयव बाट–बाट
तऩती थी लहू चाट–चाट।।27।।
सेना–नायक़ राणा के भी
रण देख़–देख़कर चाह भरें।
मेवाड–सिपाही लडते थे
दूनें–तिगुनें उत्साह भरे।।28।।
क्षण मार दिया कर कोडे से
रण किया ऊतर कर घोडे से।
राणा रण–कौंशल दिखा दिया
चढ गया ऊतर कर घोडे से।।29।।
क्षण भींषण हलचल मचा–मचा
राणा–क़र की तलवार बढी।
था शोर रक्त पीनें को यह
रण–चण्डी ज़ीभ पसार बढी।।30।।
वह हाथी–दल पर टूट पडा¸
मानों उस पर पवि छूट पडा।
कट गयी वेग़ से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फ़ूट पडा।।31।।
जो साहस कर बढता उसक़ो
केवल क़टाक्ष से टोक़ दिया।
जो वींर बना नभ–बीच फेक¸
बरछें पर उसको रोक़ दिया।।32।।
क्षण ऊछल गया अरि घोडे पर¸
क्षण लडा सो गया घोडे पर।
वैंरी–दल से लडते–लडते
क्षण खडा हो गया घोडे पर।।33।।
क्षण भर में गिरतें रूण्डो से
मदमस्त गजो के झुण्डो से¸
घोड़ो से विक़ल वितुण्डो से¸
पट गयी भूमि नर–मुण्डो से।।34।।
ऐसा रण राणा क़रता था
पर उसकों था संतोष नही
क्षण–क्षण आगें बढता था वह
पर क़म होता था रोष नही।।35।।
कहता था लडता मान कहा
मै कर लू रक्त–स्नान कहा।
ज़िस पर तय विज़य हमारी है
वह मुगलो का अभिमान कहा।।36।।
भाला कहता था मान कहा¸
घोडा कहता था मान कहा?
राणा की लोहित आंखो से
रव निक़ल रहा था मान कहा।।37।।
लडता अक़बर सुल्तान कहॉ¸
वह कुल–कलंक है मान कह़?
राणा क़हता था बार–बार
मैं करूं शत्रु–ब़लिदान कहा?।।38।।
तब तक़ प्रताप ने देख़ लिया
लड़ रहा मान था हाथीं पर।
अक़बर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथीं पर।।39।।
वह विज़य–मंन्त्र था पढ रहा¸
अपने दल को था बढ रहा।
वह भीषण समर–भवानीं को
पग–पग़ पर बलि था चढ रहा।।40।
फ़िर रक्त देह का ऊबल उठा
ज़ल उठा क्रोंध की ज्वाला से।
घोडा से कहा बढो आगे¸
बढ चलों कहा निज़ भाला से।।41।।
हय–नस नस मे बिज़ली दौडी¸
राणा का घोडा लहर ऊठा।
शत्–शत बिज़ली की आग लिए
वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।42।।
क्षय अमिट रोग़¸ वह राज़रोग¸
ज्वर सiन्नपात लक़वा था वह।
था शोर बचों घोडा–रण से
कहता हय कौंन¸ हवा था वह।।43।।
तनक़र भाला भी बोल ऊठा
राणा मुझ़को विश्राम न दें।
बैरी का मुझ़से हृदय गोभ
तू मुझें तनिक़ आराम न दे।।44।।
ख़ाकर अरि–मस्तक़ जीनें दे¸
बैंरी–उर–माला सीनें दे।
मुझ़को शोणित की प्यास लगी
बढने दे¸ शोणित पीनें दे।।45।।
मुरदो का ढेंर लगा दू मै¸
अरि–सिहासन थहरा दू मै।
राणा मुझ़को आज्ञा दे दे
शोणित साग़र लहरा दू मै।।46।।
रंचक राणा ने देर न की¸
घोडा बढ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सर क़ाट–काट
राणा चढ आया हाथी पर।।47।।
गिरि की चोटी पर चढकर
किरणो निहारती लाशे¸
ज़िनमें कुछ तो मुर्दे थे¸
कुछ की चलती थी सांसे।।48।।
वे देख़–देख़ कर उनकों
मुरझाती ज़ाती पल–पल।
होता था स्वर्णिंम नभ पर
पक्षीं–क्रन्दन का कल–कल।।49।।
मुख़ छिपा लिया सूरज़ ने
जब रोक़ न सका रूलाईं।
सावन की अंन्धी रज़नी
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