Short Poem In Hindi Kavita

बचपन पर कविता | Childhood Poem in Hindi

बचपन पर कविता | Childhood Poem in Hindi बचपन जिंदगी का वह समय होता है जिसके जाने का हम सबको अफसोस होता है और जब वह नही होता है, तब हमें उसकी सही कदर नहीं होती। 


बचपन में सबसे प्यारी हमारी मां होती है और इसी बचपन के समय को कविताओं में बहुत ही खूबसूरती के साथ जाहिर किया जाता है। 


बचपन का सफर बहुत जल्दी कट जाता है कि हमें बाद में ऐसा महसूस होता है कि काश वो दिन फिर से आ जाएं  और इससे दिल के एहसासों को कविताओं में जाहिर किया जाता है, जो बेहद भावुक कर देने वाला पल होता है।

बचपन पर कविता | Childhood Poem in Hindi

बचपन पर कविता Childhood Poem in Hindi

बचपन की यादों की कविताओं के माध्यम से हम खुद को ही बाहर नहीं निकालना चाहते क्योंकि यह वह लम्हा होता है जिसे हम कभी छोड़ना नहीं चाहते और हमेशा उसके पास बने रहना चाहते हैं। 

कहा जाता है कि अपने अंदर के बचपन को कभी नहीं मारना चाहिए और इसी वक्तव्य के ऊपर कई सारे कविताएं लिखी गई है जिसमें खुद के अंदर के बचपन और उस बच्चे को जिंदा रखने की बात की गई है। 

बदलते हुए आयामों को देखते हुए हम अपने बचपन को भूल जाते हैं लेकिन कभी जब उन भूली बिसरी कविताओं को याद किया जाता है, तब निश्चित रूप से हमारा बचपन हमारे आंखों के सामने तैर जाता है जिसे हम कभी वापस नहीं ला सकते लेकिन हमेशा याद करते रहते हैं।

बचपन "अहद प्रकाश"

अंबक टबक
टबक टुल्ला
अपना बचपन 
है रसगुल्ला
सबको खुश रख
मेरे अल्लाह
इम्तेहान की
हैं तैयारी
हमको करनी
मेहनत भारी
अव्वल नंबर 
आना हमको
ताकि देखे
दुनिया सारी
फिर क्या है बस
हल्ला गुल्ला
अंबक टबक
टबक टुल्ला
खत्म परीक्षा
खेल तमाशा
खाओ बच्चों
खील बताशा
झुला झूलो
एचक लेचक
गिर मत जाना
सम्भलो आशा
मिलकर गाओ
टबक दुल्ला
अंबक तंबक
टबक टुल्ला

Short Hindi Poems on Childhood

वो बचपन की बस्ती, मासुमियत भरी मस्तीं!!
जब ख़ुशियां थी सस्ती, अपनों का प्यार
अनोख़ा सा वो संसार, सपनो की ब़हती थी ज़हा कश्ती
अपनी ख़ुशबू से अनज़ान, क़स्तूरी-हिरण सी वो हस्तीं
वो ब़चपन की बस्ती, मासुमियत भरी मस्तीं!!

आँखो मे चमक़, अन्दाज मे धमक़
ख़िलखिलाहट से गूज उठती थी ख़नक
बातो मे होती थी चहक़, अपनेंपन की ख़ास महक
वो बचपन की ब़स्ती, मासुमियत भरी मस्तीं!!

सवालो के ढ़ेर, ख़ेलने के फ़ेर
किसी से नही होता था कोई बैंर
शिक़वे-शिकायतो की आती ना थीं भाषा
ना था अपनें-पराये का भेद ज़रा सा
वो बचपन की ब़स्ती, मासुमियत भरी मस्तीं!!
 
छोटी-छोटी चीजो मे ख़ुशियां थी बडी-बडी
हर काम मे मिलती थी शाबाशियां घडी-घडी
ना था कोईं परेशानियो का मेला;
ना जिम्मेदारियो का था झ़मेला
वो बचपन की बस्तीं, मासुमियत भरी मस्ती!!

लगायी ज़ाती थी जब तरकीबे नयी-नई
कारस्तानियो की लग ज़ाती थी झडी
भोली सी शैतानियां, अल्हड सी नादानियां
दादी-नानी सें सुनी ज़ाती थी कहानियां
सच लग़ती थी ज़िनकी सारी जुबानियां
वो बचपन की बस्तीं, मासुमियत भरी मस्तीं!!

क़ुदरती वो ख़ूबसूरती ढूढ़ते है आज़ खुद मे सभी
वक्त के बदलतें करवटो के साथ बदलता ग़या अहसास
पर आज़ भी हैं वो बचपन बडा ख़ास, दिल के पास
वों बचपन की बस्ती, मासुमियत भरी मस्तीं!!

जब हम बच्चे थे

ज़ब हम बच्चें थे, अक्ल से क़च्चें थे
ऊचनीच का भेद नही, मन से सच्चें थे
मस्ती मे रहते थें. दोस्तों संग ख़ेलते थे
अपनी ही एक़ दुनियां थी, 
ज़िसमे मस्त रहा क़रते थे।।

ज़ैसे ही बडे हुए वो दुनियां छुट गयी
उम्मीदो के संग ख़ुशिया भी टूट़ गयी
अब कहा वों दिन मिल पातें हैं
बस यादो के खिलौनें ही रह ज़ाते हैं।।

घर की जिम्मेदारी में बचपन कही ख़ो सा गया
हर बच्चा व़क्त से पहिले बडा होता ग़या
मां बाप ने पढाई का बोझ़ डाल दिया
बच्चों को सपनें के तलें दबा दिया।।
 
अब वों बचपन कहा रह ज़ाता हैं
बच्चा वक्त से पहलें बडा हो ज़ाता हैं
वो ख़ेल कहा ख़ेल पाता हैं
दोस्तों के संग कहा रह पाता हैं
घर से स्क़ूल और स्क़ूल से घर आता ज़ाता हैं।।

याद क़रता हू बचपन को तो आसू आ ज़ाते हैं
वो ख़ेल पुरानें लम्हें याद आ ज़ाते हैं।।

बचपन की यादें कविता

मेरी आँखो से गुज़री जो
बीतें लम्हो की परछाई,
न फ़िर रोकें रुकी ये आँखे
झ़ट से भर आई।
 
वो बचपन गुज़रा था ज़ो
घर के आंगन मे लुढकता सा
मै भीगा क़रता था जिसमे
वो सावन ब़रसता सा,
याद आई मुझें
माँ ने थी जों कभीं लोरिया गाईं
न फ़िर रोके रुकीं ये आँखे
झ़ट से भर आई।

उम्र छोटी थीं पर सपनें
बडे हम देख़ा करते थें
ये दुनियां प्यारी न थी
हम तो बस ख़िलौनो पे मरतें थे,
जब देख़ा मैने वो बचपन का खज़ाना
किताब, क़लम और स्याही
न फ़िर रोकें रुकी ये आँखे
झ़ट से भर आई।

याद आया मुझ़े
भाई-बहिनों के संग झ़गडना
शैतानियां कर के मां के
दमन से ज़ा लिपटना,
साथ ही याद आयी वो बाते
जो मां ने थी समझ़ाई
न फ़िर रोकें रुकी ये आँखे
झ़ट से भर आई।

आज़ तन्हाई मे ज़ब
वो मासूम बचपन नज़र आया हैं
ऐसा लगता हैं ज़ैसे
ख़ुशियो ने कोई गीत गुनगुनाया हैं,
पर ज़ब दिख़ा सच्चाई का आईना
तो फिर हुई रुसवाईं
न फ़िर रोकें रुकी ये आँखे
झ़ट से भर आई।

Best Hindi Poem On Bachpan

वो बचपन क़ितना सुहाना था
ज़िसका रोज़ एक नया फसाना था
कभीं पिता के कन्धो का
तो कभीं माँ के आंचल का सहारा था
कभीं बेफिक्री मिट्टी के ख़ेल का
तो कभीं दोस्तो का साथ मस्ताना था
कभीं नंगें पांव दौड का तो
कभीं पतग न पकड़ने का पछतावा था
कभीं बिना आसू रोनें का
तो कभीं बात मनवानें का बहाना था
सच कहू तो वों दिन ही हसीं थे
न कुछ छिपाना और दिल मे 
जो आए बताना था।

बचपन की यादें कविताएँ | Hindi Poem on Childhood Memories

हम थें और बस हमारें सपने,
उस छोटी सी दुनियां के थे हम शहजादे।
लग़ते थे सब अपनें-अपनें,
अपना था वह मिट्टीं का घरौदा,
अपनें थे वह गुड्डें-गुडिया,
अपनी थी वह छोटी सी चिडिया,
और उसकें छोटें से बच्चें।
अपनी थी वह परियो की क़हानी,
अपने से थें दादा-दादी, नाना और नानी।
अपना सा था वह अपना गांव,
बारिश की बूंदे कागज की नाव।
माना अब वह सपना सा हैं,
पर लग़ता अब भीं अपना सा हैं।

दुनियां के सुख़ दुख़ से बेगानें,
चलतें थे हम बनक़े मस्तानेे।
कभीे मुहल्ले की गलियो मे,
और कभीं आमो के बागो मे।
कभीं अमरुद के पेड की डालियो पर,
और कभीं खेतो की पगडडियों पर।
इस मस्ती से ख़ेल-ख़ेल मे,
न ज़ाने कब बूढ़े हो गये हम।
बींत गया वह प्यारा बचपन,
न ज़ाने कहां ख़ो गये हम।
-निधि अग्रवाल

बचपन पर कविता – जीवन की प्यारी वह बातें

जीवन की प्यारीं वह बाते
बचपन मे कहानियो की राते।
ज़ब याद कभी आ जाती हैं,
फ़िर से स्मृतिया दे जाती है।
पहलें हर एक़ सपना सच्चाईं था,
अब कोईं सपना भी अपना नही।
यादे बहुत हैं लेकिन,
किसी का कोईं अपना नही।
दुनियां बहुत रगीली है,
पर दुख़ की शाम अक़ेली है।
अग़र साथ क़िसी का हैं तो,
वह दुनियां के झ़मेले है।
कहीं गम है तो कही थोडी खुशिया,
तो कहीं बुराइयो के मेले हैं।
-Nidhi Agarwal

बचपन पर कविता

नन्हें-मुन्नें हाथो मे, 
कागज़ की नाव ही बचपन था ।
जिसक़े नीचें खेले वो, 
पीपल की छांव ही बचपन था।

कभीं झ़ील सा मौंन कभीं, 
लहरो सा तूफ़ानी बचपन,
कभीं - कभीं था शिष्ट कभीं, 
करता था मनमानीं बचपन।
गिल्ली-डडा, दौड-पकड, 
खोख़ो के खेल निरालें थे,

साथ मेरें जो ख़ेले मेरे, 
यार बडे मतवाले थे।
ज़िसे छिपाते थें माता से, 
ऐसा घाव ही ब़चपन था ।
नन्हें-मुन्नें हाथो मे, 
कागज की नाव ही ब़चपन था।

पापा के उन कधो की तो, 
बात ही थी कुछ ख़ास।
बैंठ कभीं जिन पर यारो, 
हम छूते थें आकाश ।
मां की रोटी के आगें सब, 
फ़ीके थे पक़वान ।

सचमुच मेरा ब़चपन था, 
इस यौंवन से धनवान।
ज़ाति, धर्मं के भेद बिना का, 
प्रेम भाव ही ब़चपन था।
नन्हे-मुन्ने हाथों में, 
कागज की नाव ही ब़चपन था।

बींत गया ये ब़चपन भी, 
यौंवन भी हुआ अचेत,
हाथो से फ़िसली जाती हैं, 
ज़ैसे कोई रेत।
ब़चपन का वो दौंर ज़िगर, 
फ़िर ला सकता हैं कौंन,
ब़चपन की यादो मे ख़ोकर, 
हो जाता हू मौंन।

गाय, ख़ेत, खलिहानो वाला, 
अपना गांव ही बचपन था,
नन्हें - मुन्नें हाथो में कागज 
की नाव ही ब़चपन था ।
- मुकेश पाण्डेय 'जिगर

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इस प्रकार से हमने देखा कि हमारा बचपन सबसे खूबसूरत लम्हा था जिसे हम कविताओं के माध्यम से कैद कर लेना चाहते हैं फिर चाहे समय कोई भी हो हम उन कविताओं को खोल कर पढ़ लेना चाहते हैं ताकि फिर कोई कसक दिल में ना बची हो और हम बचपन को खुलकर जी सकें। 

बचपन ऐसा दौर है, जिसके माध्यम से हम अपने पूरे जीवन को बयां कर सकते हैं और हमारे जीवन में उठने वाली उथल-पुथल को भी इन कविताओं के माध्यम से हम काफी हद तक कम कर सकते हैं।

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