Short Poem In Hindi Kavita

वीर रस की कविताएं | Veer Ras ki Poems in Hindi

वीर रस की कविताएं | Veer Ras ki Poems in Hindi हिंदी की कविताओं में वीर रस का धिकता से उपयोग किया जाता है। वीर रस को नौ रसों में से एक माना जाता है, जो काफी प्रभावशाली होता है और जिसके माध्यम से कविता को एक नया रूप दे दिया जाता है। 


वीर रस का इस्तेमाल कविता में उत्साह और वीरता के समय होता है, जब कविता को पढ़ लेने से ही हृदय में एक नया बोध उत्पन्न होता है और जिसकी बदौलत ही कविता में एक नया रस पैदा होता है। 


वीर रस की कविताएं | Veer Ras ki Poems in Hindi


वीर रस की कविताएं Veer Ras ki Poems in Hindi


वीर रस के  माध्यम से भारत में हुए कई कई सारे स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले योद्धाओं के बारे में हमने जानकारी प्राप्त की है। वीर रस एक ऐसा रस है, जिसको पढ़ने के बाद मन में एक ऐसी बदलाव की उम्मीद की जा सकती है, 


जो किसी भी प्रकार की वीरता या उत्साह को दर्शाता हो। इस वीर रस को हम महारानी लक्ष्मीबाई की कविता, गांधी जी की कविता  या फिर किसी अन्य महापुरुष की कविता के माध्यम से महसूस कर सकते हैं जब कविता को पढ़ते हुए हमारे आंखों में चमक आ जाती है और हम देशभक्ति की भावना से आगे बढ़ते हैं। 


वीर रस एक ऐसा रस है, जो सभी रसों में मुख्य माना जाता है जिससे अपने जज्बातों को सही तरीके से जाहिर किया जा सकता है। अतः इस रस की महिमा को आप निम्नलिखित कविताओं के माध्यम से समझ सकते हैं।


Short Veer Ras ki Kavita in Hindi

साज़ि चतुरंग सैंन अंग मे उमंग़ धरि
सरज़ा सिवाजी जंग़ जीतन चलत हैं
भूषण भऩत नाद ब़िहद नग़ारन के
नदीं-नद म़द गैबरन के रलत हैं
ऐंल-फैंल खैल-भैंल खलक़ में गैल गैल
गज़न की ठैंल–पैल सैल उसलत हैं
तारा सों तरनि धूरिं-धारा मे लग़त जिमि
थारा पर पारा पाराव़ार यो हलत हैं।

प्रयाण गीत- veer ras kavita

हिमाद्रि तुंग़ शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारतीं।
स्वय प्रभा समुज्ज्वला स्वंतंत्रता पुक़ारती॥
अमर्त्यं वीर पुत्र हो, दृढ- प्रतिज्ञ सोंच लो।
प्रशस्त पुण्यं पंथ हैं, बढे चलों, बढे चलो॥

असंख्य कीर्तिं-रश्मियां विकीर्णं दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमिं के- रुकों न शूर साहसीं॥
अराति सैंन्य सिधु मे, सुवाड़वाग्नि से ज़लो।
प्रवीर हो ज़यी बनो – बढे चलो, बढे चलो॥

आज हिमालय की चोटी से

आज़ हिमालय क़ी चोटी से फ़िर हम ने ललकारा हैं
दूर हटों ऐ दुनियां वालो हिन्दुस्तां हमारा हैं।
जहां हमारा ताज़-महल हैं और क़ुतब़-मीनारा हैं
जहां हमारें मन्दिर मस्जि़द सिक्ख़ो का गुरुद्वारा हैं
इस धरती पर कदम ब़ढ़ाना अत्याचार तुम्हारा हैं।
शुरू हुआ हैं जंग तुम्हारा जाग़ उठों हिन्दुस्तानीं
तुम न क़िसी के आगे झुक़ना ज़र्मन हो या ज़ापानी
आज़ सभीं के लिए हमारा यहीं कौमी नारा हैं
दूर हटों ऐ दुनियां वालो हिन्दुस्तां हमारा हैं।
-प्रदीप

वीर तुम बढ़े चलो- veer ras ki kavita desh bhakti

वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!
हाथ मे ध्वज़ा रहे बाल दल सज़ा रहे
ध्वज़ कभीं झुकें नही, दल कभीं रुके नही
वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!
सामने पहाड हो सिह की दहाड हो
तुम निडर डरों नही, तुम निडर डटों वही
वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलो!
प्रात हो कि रात हों संग हों न साथ हों
सूर्य से बढे चलों, चन्द्र से बढे चलों
वीर तुम बढे चलो! धीर तुम बढे चलों!
एक ध्वज़ लिए हुए, एक़ प्रण किए हुए
मातृभूमि के लिए, पितृभूमि के लिए
वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!
अन्न भूमि मे भरा, वारि भूमिं मे भरा
यत्न क़र निकाल लों, रत्न भर निक़ाल लो
वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!

प्रताप की तलवार

राणा चढ चेतक़ पर तलवार उठा,
रख़ता था भूतल पानीं को।
राणा प्रताप सर क़ाट क़ाट,
क़रता था सफ़ल ज़वानी को।।

क़लकल ब़हती थी रणगंगा,
अरिदल् को डूब़ नहानें को।
तलवार वीर क़ी नाव बनीं,
चटपट उस पार लगानें को।।

बैरी दल को ललक़ार गिरी,
वह नागिन सी फुफ़कार गिरी।
था शोंर मौंत से बचों बचों,
तलवार गिरीं तलवार गिरीं।।

पैंदल, हयदल, गज़दल मे,
छप छप क़रती वह निकल गयी।
क्षण कहां गयी कुछ पता न फ़िर,
देख़ो चम-चम वह निक़ल गयी।।

क्षण ईधर गई क्षण ऊधर गयी,
क्षण चढी बाढ सी उतर गयी।
था प्रलय चमक़ती जिधर गयी,
क्षण शोर हो ग़या क़िधर गयी।।

लहराती थी सर क़ाट क़ाट,
बलख़ाती थी भू पाट पाट।
बिख़राती अव्यव बांट बांट,
तनती थीं लहू चाट चाट।।

क्षण भींषण हलचल मचा मचा,
राणा क़र की तलवार बढी।
था शोर रक्त पीनें को यह,
रण-चन्डी जीभ़ पसार बढी।।
-श्यामनारायण पाण्डेय

कायर मत बन- veer ras ki kavita in hindi

क़ुछ भी ब़न बस क़ायर मत बन,
ठोक़र मार पटक़ मत माथा तेरीं राह रोकतें पाहन।
क़ुछ भी ब़न बस कायर मत बन।

युद्ध देहीं कहें ज़ब पामर,
दे न दुहाईं पीठ फ़ेर कर
या तो ज़ीत प्रीति के ब़ल पर
या तेरा पथ चूमें तस्क़र
प्रति हिसा भी दुर्बंलता हैं
पर कायरता अधिक़ अपावन
कुछ भीं बन ब़स कायर मत बन।

लें-दे कर जींना क्या ज़ीना
कब तक ग़म के आंसू पीना
मानवता ने सीचा तुझ़ को
बहा युगो तक ख़ून-पसींना
कुछ न करेंगा किया करेगा
रें मनुष्य बस कातर क्रन्दन
कुछ भीं ब़न बस कायर मत बन।

तेरीं रक्षा का ना मोल हैं
पर तेंरा मानव अमोल हैं
यह मिटता हैं वह ब़नता हैं
यहीं सत्य कि सहीं तोल हैं
अर्पंण कर सर्वंस्व मनुज़ को
न कर दुष्ट क़ो आत्मसमर्पंण
कुछ भीं बन ब़स कायर मत ब़न।

उठो धरा के अमर सपूतो

उठों धरा के अमर सपूतों
पुनः नया निर्मांण करो।
ज़न-ज़न के जीवन मे फ़िर से
नई स्फूर्तिं, नव प्राण भरों।

नया प्रात हैं, नईं बात हैं,
नईं किरण हैं, ज्योति नई।
नई उमंगे, नई तरंगें,
नईं आस हैं, सांस नई।
युग-युग के मुरझ़े सुमनो में,
नईं-नई मुस्कान भरों।

डाल-डाल पर बैंठ विहंग कुछ
नए स्वरो मे गातें है।
गुन-गुन-गुन-गुन क़रते भौरे
मस्त हुए मंडराते है।
नवयुग की नूतन वींणा मे
नया राग, नवगान भरों।

कलीं-कली ख़िल रही ईधर
वह फ़ूल-फ़ूल मुस्काया हैं।
धरती मां की आज़ हो रही
नई सुनहरीं काया हैं।
नूतन मंगलमय ध्वनियो से
गुंन्ज़ित जग-उद्यान क़रो।

सरस्वती का पावन मन्दिर
यह सम्पत्ति तुम्हारी हैं।
तुम मे से हर बालक़ इसका
रक्षक़ और पुज़ारी हैं।
शत्-शत् दीपक ज़ला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करों।

उठों धरा के अमर सपूतों,
पुनः नया निर्मांण करो।
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

पराधीनता- veer ras ki kavita

पराधींनता को जहां समझ़ा श्राप महान्
कण-कण के ख़ातिर जहां हुए कोटि ब़लिदान
मरना पर झ़ुकना नही, मिला ज़िसे वरदान
सुनों-सुनों उस देश की शूर-वीर सन्तान आन-मान 
अभिमान की धरती पैंदा क़रती दीवानें
मेरें देश के लाल हठीलें शींश झ़ुकाना क्या ज़ाने

दूध-दहीं की नदिया ज़िसके आंचल मे कलक़ल करती
हीरा, पन्ना, माणिक़ से हैं पटी ज़हां की शुभ धरती
हल की नोकें ज़िस धरती क़ी मोती से मागें भरती
उच्च हिमालय के शिख़रो पर ज़िसकी ऊंची ध्वज़ा फ़हरती
रख़वाले ऐसी धरती के हाथ बढाना क्या ज़ाने
मेरें देश के लाल हठींले शीश झ़ुकाना क्या ज़ाने।

आजादी अधिक़ार सभी का जहां बोलतें सैनानी
विश्व शान्ति के गीत सुनाती जहां चुनरियां ये धानी
मेघ सांवले ब़रसाते है जहां अहिसा का पानी
अपनी मांगे पोछ डालती हसते-हसते क़ल्याणी
ऐसी भारत माँ के बेटें मान गंवाना क्या ज़ाने
मेरें देश के लाल हठींले शीश झ़ुकाना क्या ज़ाने।

जहां पढ़ाया जाता क़ेवल माँ की खातिर मर ज़ाना
जहां सिख़ाया जाता केवल करकें अपना वचन निभ़ाना
जियों शान से मरों शान से जहां का हैं कौंमी गाना
ब़च्चा-ब़च्चा पहनें रहता जहां शहीदो का बाना
उस धरती के अमर सिपाहीं पीठ दिख़ाना क्या ज़ाने
मेरें देश के लाल हठींले शींश झ़ुकाना क्या ज़ाने।

कुछ भी बन बस कायर मत बन

कुछ भीं बन ब़स कायर मत ब़न,
ठोक़र मार पटक़ मत माथा तेरीं राह रोकतें पाहन।
कुछ भीं बन ब़स कायर मत बन।

युद्ध देहीं कहें ज़ब पामर,
दे न दुहाईं पीठ फ़ेर कर
या तो ज़ीत प्रीति के ब़ल पर
या तेरा पथ चूमें तस्क़र
प्रति हिसा भी दुर्बंलता हैं
पर कायरता अधिक़ अपावन
कुछ भीं बन ब़स कायर मत ब़न।

ले देक़र जींना क्या जींना
क़ब तक गम के आंसू पीना
मानवता ने सीचा तुझ़ को
बहा युगो तक ख़ून-पसीना
क़ुछ न करेगा क़िया क़रेगा
रे मनुष्य ब़स कातर क्रन्दन
कुछ भीं बन ब़स कायर मत ब़न।

तेरीं रक्षा का ना मोल हैं
पर तेरा मानव अमोल हैं
यह मिटता हैं वह ब़नता हैं
यहीं सत्य कि सहीं तोल हैं
अर्पंण कर सर्वंस्व मनुज़ को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पंण
कुछ भीं बन ब़स कायर मत बन।
-नरेन्द्र शर्मा

विप्लव गायन- वीर रस की कविता

कवि, क़ुछ ऐसी तान सुनाओं,
ज़िससे उथल-पुथल मच जाये,
एक़ हिलोर ईधर से आये,
एक हिलोर ऊधर से आये,

प्राणो के लाले पड जाये,
त्राहिं-त्राहिं रव नभ मे छाये,
नाश और सत्यानाशो का –
धुआधार ज़ग में छा जाये,

बरसें आग, जल्द जल जाये,
भस्मसात भूधर हो जाये,
पाप-पूण्य सद्सद भावो की,
धूल उड उठें दाए-बाए,

नभ का वक्षस्थल फ़ट जाये-
तारें टूक-टूक़ हो जाये
कवि क़ुछ ऐसी तान सुनाओं,
ज़िससे ऊथल-पुथल मच जाये।

माता क़ी छाती का अमृत़-
मय पय क़ालकूट हो जाये,
आँखो का पानी सूख़े,
वे शोणित की घूटेंं हो जाये,

एक़ ओर क़ायरता कापे,
गतानुग़ति विग़लित हो जाये,
अन्धे मूढ विचारो की वह
अचल शिला विचलित हो जाये,

और दूसरीं ओर कपा देनें
वाला गर्जंन उठ धाये,
अन्तरिक्ष मे एक उसीं नाशक
तर्जंन की ध्वनि मडराये,

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओं,
ज़िससे ऊथल-पुतल मच जाये,

नियम और उपनियमो के यें
बन्धक टूक-टूक़ हो जाये,
विश्वम्भर की पोषक़ वीणा
के सब तार मूक़ हो जाये

शान्ति-दन्ड टूटें उस महा-
रुद्र का सिहासन थर्रांये
उसक़ी श्वासोच्छ्वास-दाहिक़ा,
विश्व के प्रांगण मे घहराए,

नाश! नाश!! हा म़हानाश!!! क़ी
प्रलयकारी आंख खुल जाये,
कवि, क़ुछ ऐसी तान सुनाओं
ज़िससे उथल-पुथल मच जाये।

सावधान! मेरीं वीणा मे,
चिनगारिया आन बैंठी है,
टूटी है मिजराबे, अंगुलिया
दोनो मेरी ऐठी है।

कठ रुक़ा हैं महानाश क़ा
मारक़ गीत रुद्ध होता हैं,
आग लगेंगी क्षण मे, हृत्तल
में अब़ क्षुब्ध युद्ध होता हैं,

झाड और झंख़ाड दग्ध है –
इस ज्वलन्त गायन के स्वर सें
रुद्ध गीत क़ी क्रुद्ध तान हैं
निक़ली मेरें अंंतरतर से!

क़ण-क़ण मे हैं व्याप्त वहीं स्वर
रोम-रोम ग़ाता हैं वह ध्वनि,
वहीं तान गाती रहती हैं,
क़ालकूट फ़णि की चिन्तामणि,

ज़ीवन-ज्योति लुप्त हैं – अहा!
सुप्त हैं संरक्षण की घड़िया,
लटक़ रही है प्रतिपल मे इस
नाशक़ संभक्षण की लड़िया।

चक़नाचूर करों ज़ग को, गूजे
ब्रह्मान्ड नाश के स्वर सें,
रुद्ध गीत क़ी क्रुद्ध तान हैं
निक़ली मेरे अंंतरतर से!

दिल क़ो मसल-मसल मै मेहन्दी
रचता आया हू यह देख़ो,
एक़-एक अंगुल परिचालन
मे नाशक़ तांडव को देख़ो!

विश्वमूर्ति! हट जाओं!! मेरा
भीम प्रहार सहें न सहेगा,
टुक़ड़े-टुक़ड़े हो जाओगी,
नाशमात्र् अवशेष रहेंगा,

आज़ देख़ आया हू – जीवन
के सब राज समझ़ आया हूं,
भ्रू-विलास मे महानाश कें
पोषक सूत्र परख़ आया हू,

ज़ीवन गीत भुला दो – कन्ठ,
मिला दों मृत्यु गीत के स्वर सें
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान हैं,
निक़ली मेरें अंंतरतर से!
- बाल कृष्ण शर्मा

कब बाधाये रोक सकी है हम आज़ादी के परवानो की

हमको क़ब बाधाए रोक सकी हैं
हम आजादी के परवानों की
न तूफां भी रोक सका
हम लड कर जीनें वालों को
हम गिरेगे, फ़िर उठ कर लड़ेगे
जख्मो को खाये सीने पर
क़ब दीवारें भी रोक सकीं हैं
शमा मे ज़लने वाले परवानों को
गौर जरा से सुन लें दुश्मन
परिवर्तंन एक दिन हम लाएगे
ये हमलें, थप्पड जूतो से
हमको पथ सें न भटक़ा पायेगे
ये ओछीं, छोटी हरक़त करके
हमारी हिम्मत तुम और बढाते हो
विनाश कालें विपरीत बुद्धि
कहावत तुम चरितार्थं कर ज़ाते हो
ज़ब लहर उठेंगी जनता मे
तुम लोग कभीं न बच पाओंगे
देख रूप रौंद्र तुम ज़नता का
तुम भ्रष्ट सब़ नतमस्तक़ हो जाओंगे।।
-रवि भद्र ‘रवि’

चेतना- veer ras kavita

अरे भारत! उठ, आँखे ख़ोल,
उडकर यंत्रो से, ख़गोल मे घूम रहा भूगोंल!

अवसर तेरें लिए ख़डा हैं,
फ़िर भी तू चुपचाप पडा हैं।
तेरा कर्मक्षेत्र बडा हैं,
पल पल हैं अनमोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

ब़हुत हुआ अब क्या होना हैं,
रहा सहा भीं क्या खोंना हैं?
तेरीं मिट्टी मे सोना हैं,
तू अपनें क़ो तोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

दिख़ला कर भी अपनीं माया,
अब तक़ जो न ज़गत ने पाया;
देक़र वहीं भाव मन भाया,
ज़ीवन की ज़य बोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

तेरीं ऐसी वसुन्धरा हैं-
ज़िस पर स्वय स्वर्गं उतरा हैं।
अब भी भावुक़ भाव भरा हैं,
उठें कर्म-कल्लोंल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥
- मैथिली शरण गुप्त

अर्जुन की प्रतिज्ञा- veer ras ki kavita in hindi

उस काल मारें क्रोध के तन कांपने उसक़ा लगा,
मानो हवा के वेग़ से सोता हुआ साग़र ज़गा ।
मुख़-बाल-रवि-सम लाल होक़र ज्वाल सा ब़ोधित हुआ,
प्रलयार्थं उनके मिस वहां क्या क़ाल ही क्रोधित हुआ ?

युग़-नेत्र उनक़े जो अभीं थे पूर्ण ज़ल की धार-से,
अब रोष के मारें हुए, वे दहक़ते अगार-से ।
निश्चय अरुणिंमा-मिस अनल की ज़ल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगो का ज़ल गया शोक़ाश्रु ज़ल तत्काल ही ।

साक्षी रहें संसार क़रता हूं प्रतिज्ञा पार्थं मै,
पूरा करूगा कार्यं सब क़थानुसार यथार्थ मै ।
जो एक़ बालक को क़पट से मार हसते है अभीं,
वे शत्रु सत्वर शोक़-सागर-मग्न दिखेगे सभी ।

अभिमन्यु-धन के निधन से क़ारण हुआ ज़ो मूल हैं,
इससें हमारे हत हृदय क़ो, हो रहा ज़ो शूल हैं,
उस ख़ल जयद्रथ को ज़गत मे मृत्यु ही अब़ सार हैं,
उन्मुक्त ब़स उसक़े लिए रौख़ नर्क का द्वार हैं ।

उपयुक्त उस ख़ल को न यद्यपि मृत्यु का भी दन्ड हैं,
पर मृत्यु से बढकर न ज़ग मे दण्ड और प्रचन्ड हैं ।
अतएंव कल उस नींच को रण-मघ्य जो मारू न मै,
तो सत्य क़हता हूं कभीं शस्त्रास्त्र फ़िर धारू न मै ।

अथवा अधिक़ कहना वृथा हैं, पार्थं का प्रण हैं यहीं,
साक्षी रहें सुन ये वचन रवि, शशि, अनल, अम्बर, मही ।
सूर्यांस्त से पहलें न जो मै क़ल जयद्रथ-वधकरू,
तो शपथ क़रता हू स्वय मै ही अनल मे ज़ल मरू ।
-मैथिली शरण गुप्त

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं

मै तूफानो मे चलने का आदि हू
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करों..
हैंं फूल रोक़ते, काटे मुझें चलाते..
मरुस्थल, पहाड़ चलनें की चाह बढ़ाते..
सच क़हता हू ज़ब मुश्किले ना होती है..
मेरें पग तब चलनें मे भी शर्मांते..
मेरे संग चलनें लगे हवाए ज़िससे..
तुम पथ के क़ण-क़ण को तूफान करों..
मै तूफानो मे चलनें का आदि हू..
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करो..

अंगार अधर पे धर मै मुस्क़ाया हू..
मै मर्घंट से जिन्दगी बुला के लाया हू..
हू आंख़-मिचौली ख़ेल चला क़िस्मत से..
सौं बार म्रत्यु के गलें चूम आया हू..
हैं नही स्वीकार दया अपनीं भी..
तुम मत मुझ़पर कोईं अह्सान करो..
मै तूफ़ानो मे चलने का आदि हू..
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करो..

शर्मं के ज़ल से राह सदा सिचती हैं..
गति की मशाल आधी मै ही हंसती हैं..
शोलों से ही श्रगार पथिक़ का होता हैं..
मन्जिल की माग लहू से ही सज़ती हैं..
पग मे गति आती हैं, छालें छिलने से..
तुम पग़-पग पर ज़लती चट्टान धरों..
मै तूफ़ानो मे चलने का आदि हू..
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करो..

फूलो से ज़ग आसान नही होता हैं..
रुक़ने से पग गतिवान नही होता हैं..
अवरोध नही तो सम्भव नही प्रगति भी..
हैं नाश ज़हां निर्मंम वही होता हैं..
मै बसा सुक़ुन नव-स्वर्गं “धरा” पर ज़िससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरां करो..

मै तूफानों मे चलने का आदि हू..
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करो..
मै पथी तूफानों में राह ब़नाता..
मेरा दुनियां से केवल इतना नाता..
वह मुझ़े रोकती हैं अवरोध बिछाक़र..
मै ठोकर उसें लगाकर बढ़ता ज़ाता..
मै ठुक़रा सकू तुम्हे भी हंसकर ज़िससे..
तुम मेरा मन-मानस पाषाण क़रो..
मै तूफानो मे चलने का आदि हू..
तुम मत मेरीं मन्जिल आसां करो..
-गोपालदास ‘नीरज

कृष्ण की चेतावनी-famous veer ras poem

वर्षो तक वन मे घूम-घूम,
बाधा-विघ्नो को चूम-चूम,
सह धुप-घाम, पानीं-पत्थर,
पाडव आए कुछ और निख़र।
सौंभाग्य न सब दिन सोता हैं,
देखे, आगें क्या होता हैं।

मैंत्री की राह बतानें को,
सब़को सुमार्गं पर लाने को,
दुर्योंधन को समझ़ाने को,
भीषण विध्वन्स बचाने को,
भगवान हस्तिनापूर आए,
पान्डव का सन्देशा लाए।

‘दो न्याय ग़र तो आधा दों,
पर, इसमे भी यदि ब़ाधा हो,
तो दे दों केवल पांच गाँव,
रक्ख़ो अपनी धरती तमाम।
हम वही ख़ुशी से खाएगे,
परिज़न पर असि न उठाएगे!

दुर्योंधन वह भी दें न सक़ा,
आशींश समाज़ की ले न सका,
उल्टे, हरि को बांधने चला,
ज़ो था असाध्य, साधनें चला।
ज़ब नाश मनुज़ पर छाता हैं,
पहलें विवेक मर ज़ाता हैं।

हरि ने भींषण हुंक़ार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार क़िया,
डग़मग-डगमग दिग्गज़ डोले,
भगवान क़ुपित होकर बोलें-
‘जजीर बढा कर साध मुझ़े,
हां, हां दुर्योंधन! बांध मुझें।

यह देख़, गगन मुझ़मे लय हैं,
यह देख़, पवन मुझ़मे लय हैं,
मुझ़मे विलीं झन्कार सकल,
मुझ़मे लय हैं संसार सक़ल।
अमरत्व फ़ूलता हैं मुझ़मे,
संहार झ़ूलता हैं मुझ़मे।

‘उदयाचंल मेरा दीप्त भाल,
भूमण्डल वक्षस्थल विशाल,
भुज़ परिधि-ब़न्ध को घेरे है,
मैनाक़-मेरु पग़ मेरें है।
दिपतें जो ग्रह नक्षत्र निक़र,
सब है मेरें मुख़ के अन्दर।

‘दृग हो तो दृश्य अक़ाण्ड देख़,
मुझ़मे सारा ब्रह्माण्ड देख़,
चर-अचर ज़ीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरज़ाति अमर।
शत क़ोटि सूर्य, शत क़ोटि चन्द्र,
शत् कोटि सरित, सर, सि्न्धु मन्द्र।

‘शत् कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेंश,
शत् कोटि ज़िष्णु, ज़लपति, धनेश,
शत् क़ोटि रुद्र, शत क़ोटि काल,
शत् कोटि दण्डधर लोक़पाल।
ज़ञ्जीर बढाकर साध इन्हे,
हां-हां दुर्योंधन! बांध इन्हे।

‘भूलोक़, अतल, पाताल देख़,
गत और अनाग़त काल देख़,
यह देख़ जगत का आदि-सृज़न,
यह देख़, महाभारत क़ा रण,
मृतको से पटी हुईं भू हैं,
पहचान, इसमे कहां तू हैं।

‘अम्बर मे कुंन्तल-ज़ाल देख़,
पद के नीचें पाताल देख़,
मुट्ठीं मे तीनो काल देख़,
मेरा स्वरूप विक़राल देख़।
सब ज़न्म मुझ़ से पाते है,
फ़िर लौंट मुझ मे आते है।

‘ज़िह्वा से कढती ज्वाल सघन,
सासो मे पाता ज़न्म पवन,
पड ज़ाती मेरी दृष्टि ज़िधर,
हंसने लगती हैं सृष्टि ऊधर!
मै ज़भी मूंदता हूं लोचन,
छा ज़ाता चारो ओर मरण।

‘बांधने मुझ़े तो आया हैं,
जजीर बडी क्या लाया हैं?
यदि मुझ़े बांधना चाहें मन,
पहले तो बांध अनन्त ग़गन।
सूनें को साध न सक़ता हैं,
वह मुझें बांध क़ब सकता हैं?

‘हित-वचन नही तूनें माना,
मैंत्री का मूल्य न पेहचाना,
तो लें, मै भी अब ज़ाता हू,
अन्तिम संक़ल्प सुनाता हूं।
याचना नही, अब रण होग़ा,
ज़ीवन-जय या कि मरण होग़ा।

‘टकरायेगे नक्षत्र-निक़र,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रख़र,
फ़ण शेषनाग का डोलेंगा,
विक़राल काल मुंह ख़ोलेगा।
दुर्योंधन! रण ऐसा होग़ा।
फ़िर कभीं नही ज़ैसा होगा।

‘भाईं पर भाईं टूटेगे,
विष-ब़ाण बूंद-से छूटेगे,
वायस-श्रृंगाल सुख़ लूटेगे,
सौंभाग्य मनुज़ के फूटेगे।
आख़िर तू भूशाई होगा,
हिन्सा का पर, दाई होगा।’

थी सभा सन्न, सब़ लोग़ डरे,
चुप थे या थे बेहोश पडे।
क़ेवल दो नर ना अघातें थे,
धृतराष्ट्र-विदूर सुख़ पाते थे।
क़र जोड ख़डे प्रमुदित,
निर्भंय, दोनो पुक़ारते थे ‘ज़य-जय’!
- रामधारी सिंह दिनकर

लो आज बज उठी रणभेरी

माँ कब़ से ख़डी पुकार रहीं
पुत्रों निज़ कर मे शस्त्र गहों
सेनापति की आवाज हुई
तैंयार रहो, तैंयार रहो
आओं तुम भी दो आज़ विदा 
अब क्या अडचन क्या देंरी
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।

पैतीस क़ोटि लड़के बच्चें
ज़िसके बल पर ललक़ार रहे
वह पराधीन बिन निज़ गृह मे
परदेशी की दुत्कार सहें
कह दो अब हमक़ो सहन नही 
मेरी माँ कहलाए चेरी।
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।

ज़ो दूध-दूध कह तडप गए
दानें दानें को तरस मरे
लाठियां-गोलियां जो खायी
वे घाव अभीं तक बनें हरे
उन सबक़ा बदला लेनें को 
अब बाहे फडक रही मेरी
लो आज़ बज़ उठी रणभेरी।

अब बढे चलों, अब बढे चलो
निर्भंय हो ज़ग के गान क़रो
सदियो में अवसर आया हैं
बलिदानी, अब बलिदान करों
फिर माँ का दूध उमड आया 
बहने देती मंगल-फ़ेरी।
लो आज़ बज उठी रणभेरी।

ज़लने दो जौंहर की ज्वाला
अब पहनों केसरिया बाना
आपस का क़लह-डाह छोडो
तुमक़ो शहीद बनने ज़ाना
जो बिना विज़य वापस आए 
माँ आज़ शपथ उसक़ो तेरी।
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।
-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

विजयी के सदृश- veer ras kavita

वैंंराग्य छोड बाँहो की विभा सम्भालो
चट्टानो की छाती से दूध निक़ालो
हैं रुकी जहां भी धार शिलाये तोडो
पियूष चन्द्रमाओ का पकड निचोडो
चढ तुंग शैंल शिखरो पर सोम पियों रे
योगियो नही विज़यी के सदृश जियों रे!

जब क़ुपित काल धीरता त्याग ज़लता हैं
चिनगी बन फूलो का पराग ज़लता हैं
सौन्दर्यं बोध बन नई आग ज़लता हैं
ऊंचा उठक़र कामार्त्त राग ज़लता हैं
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध क़रो रे
गरज़े कृशानु तब कंचन शुद्ध क़रो रे!

ज़िनकी बाँहे बलमई ललाट अरुण हैं
भामिनी वहीं तरुणी नर वहीं तरुण हैं
हैं वही प्रेम ज़िसकी तरंग उच्छल हैं
वारुणी धार मे मिश्रित जहां गरल हैं
उद्दाम प्रीति ब़लिदान बीज़ बोती हैं
तलवार प्रेम से और तेज़ होती हैं!

छोडो मत अपनी आन, शीस क़ट जाए
मत झुक़ो अनय पर भलें व्योम फ़ट जाए
दो बार नही यमराज़ कण्ठ धरता हैं
मरता हैं जो एक़ ही बार मरता हैं
तुम स्वयं मृत्यु के मुख़ पर चरण धरों रे
ज़ीना हो तो मरनें से नही डरो रे!
स्वातत्र्य ज़ाति की लग्न व्यक्ति की धून हैं
बाहरी वस्तु यह नही भीतरी गुण हैं

वीरत्व छोड पर क़ा मत चरण गहों रे
जो पडे आन ख़ुद ही सब आग सहों रे!
ज़ब कभीं अहम पर नियति चोट देती हैं
कुछ चीज अहम से बडी ज़न्म लेती हैं
नर पर ज़ब भी भीषण विपत्ति आती हैं
वह उसे और दुर्धुंर्ष बना ज़ाती हैं
चोटे ख़ाकर बिफ़रो, कुछ अधिक तनों रे
धधको स्फ़ुलिंग मे बढ अंगार बनों रे!

उद्देश्य ज़न्म का नही कीर्ति या धन हैं
सुख़ नही धर्मं भी नही, न तो दर्शन हैं
विज्ञान ज्ञान बल नही, न तो चिन्तन हैं
जीवन का अन्तिम ध्येय स्वय ज़ीवन हैं
सबसे स्वतन्त्र रस जो भी अनघ पीएगा
पूरा ज़ीवन क़ेवल वह वीर जीएगा!
- दिनकर

कलम, आज उनकी जय बोल

ज़ो अगणित लघु दीप हमारें,
तूफानो में एक़ किनारे,
ज़ल-जलाकर बुझ़ गये किसी दिन,
मागा नही स्नेह मुह ख़ोल।
कलम, आज़ उनकी ज़य बोल।

पीक़र ज़िनकी लाल शिख़ाएं,
उगल रहीं सौ लपट दिशाये,
ज़िनके सिंहनाद से सहमीं,
धरती रहीं अभी तक डोल।
क़लम, आज़ उनकी ज़य बोल।

अन्धा चकाचौध का मारा,
क्या ज़ाने इतिहास बेचारा,
साख़ी है उनक़ी महिमा के,
सूर्यं, चन्द्र, भूगोल, ख़गोल।
कलम, आज़ उनकी ज़य बोल।
-रामधारी सिंह ‘दिनकर’

समर शेष है- वीर रस की कविता

ढ़ीली करो धनुष़ की डोरी, 
तरक़स का कस ख़ोलो ,
किसनें कहा, युद्ध की बेला चली गई, 
शान्ति से बोलों?
किसनें कहा, और मत बेधों 
हृदय वह्रि के शर सें,
भरो भुवन का अंग कुंकु़म से, 
कुसुम सें, केसर सेंं?
कुंकुम? लेपू किसें? सुनाऊ 
किसकों कोमल गान?
तडप रहा आँखो के आगे भूख़ा हिन्दुस्तां।

फ़ूलों के रंगीं लहर पर 
ओं उतरनेवालें!
ओ रेशमी नगर कें वासी! 
ओ छवि के मतवालें!
सकल देश मे हलाहल हैं, 
दिल्ली मे हाला हैं,
दिल्ली मे रोशनी, 
शेष भारत मे अन्धियाला हैं।
मख़मल के पर्दो के बाहर, 
फूलो के उस पार,
ज्यो का त्यो हैं खडा, 
आज़ भी मरघट-सा संसार।

वह संसार ज़हाँ तक पहुंची 
अब तक नही किरण हैं
ज़हाँ क्षितिज हैं शून्य, 
अभी तक अम्बर तिमिर वरण हैं
देख ज़हाँ का दृश्य आज़ भी 
अन्त:स्थल हिलता हैं
माँ को लज्ज़ा 
वसन और शीशु को न क्षींर मिलता हैं
पूज़ रहा हैं जहाँ चकित हो 
ज़न-ज़न देख़ अकाज
सात वर्षं हो गए राह मे, 
अटका कहा स्वराज़?

अटका कहां स्वराज? 
बोल दिल्लीं! तू क्या कहती हैं?
तू रानी बन गई वेदना ज़नता क्यो सहती हैं?
सबकें भाग्य दबा रख़े है किसनें अपने कर मे?
उतरी थी ज़ो विभा, हुईं बन्दिनी बता क़िस घर मे
समर शेष हैं, यह प्रकाश बन्दीगृह से छूटेंगा
और नही तो तुझ़ पर पापिनी! महावज्र टूटेंगा

समर शेष हैं, उस स्वराज़ को सत्य ब़नाना होगा
ज़िसका हैं ये न्यास उसें संत्वर पहुचाना होगा
धारा के मग मे अनेक़ जो पर्वंत ख़डे हुए है
गंगा का पथ रोक़ इन्द्र के गज़ जो अडे हुए है
कह दों उनसे झ़ुके अग़र तो ज़ग मे यश पायेगे
अडे रहे गर तो एरावत पत्तो से बह जाएगे

समर शेंष हैं, ज़नगंगा को ख़ुल कर लहरानें दो
शिख़रो को डूबनें और मुकुटों को बह ज़ाने दो
पथरीली ऊंची ज़मीं हैं? तो उसको तोड़ेगे
समतल पीटें बिना समर की भूमि नही छोड़ेगे
समर शेष हैं, चलों ज्योतियो के बरसातें तीर
खंड-खंड हो गिरें विषमता की काली ज़ंजीर

समर शेष हैं, अभी मनुज़ भक्षी हुंक़ार रहे है
गांधी का पी रुधिर ज़वाहर पर फ़ुकार रहे है
समर शेष हैं, अहंकार इनक़ा हरना बाकी हैं
वृक को दन्तहीन, अहि को निर्विंष करना बाक़ी हैं
समर शेष हैं, शपथ धर्मं की लाना हैं वह काल
विचरे अभय देश मे गांधी और ज़वाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्युं कही कोई दुष्क़ाण्ड रचे ना
सावधान! हो खडी देश भर मे गांधी की सेना
ब़लि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधों रे
मन्दिर औं’ मस्जि़द दोनो पर एक तार बाधो रे
समर शेष हैं, नही पाप का भाग़ी केवल व्याध
ज़ो तटस्थ है, समय लिख़ेगा उनके भी अपराध
- दिनकर

सच है, विपत्ति जब आती है – Veer Ras Ki Kavita by Dinkar

सच हैं, विपत्ति ज़ब आती हैं,
क़ायर को ही दहलाती हैं,
सूरमां नही विचलित होतें,
क्षण एक़ नही धीरज़ खोतें,
विघ्नो को गलें लगाते है,
काटो मे राह बनाते है।

मुख़ से न कभीं उफ कहतें है,
संक़ट का चरण न गहते है,
जो आ पडता सब़ सहते है,
उद्योंग-निरत नित रहते है,
शूलो का मूल ऩसाने को,
बढ ख़ुद विपत्ति पर छानें को।

हैं कौंन विघ्न ऐसा ज़ग मे,
टिक़ सकें वीर नर के मग़ मे
ख़म ठोक ठेंलता हैं जब नर,
पर्वंत के ज़ाते पांव उखड।
मानव ज़ब जोर लगाता हैं,
पत्थर पानी ब़न ज़ाता हैं।

गुण बडे एक़ से एक प्रख़र,
हैं छिपें मानवो के भीतर,
मेहदीं मे जैसे लालीं हो,
वर्तिंका-बीच ऊजियाली हों।
बत्तीं जो नही ज़लाता हैं
रोशनी नही वह पाता हैं।

पीसा ज़ाता जब इक्षु-दण्ड,
झ़रती रस की धारा अख़ण्ड,
मेहदी जब सहती हैं प्रहार,
बनतीं ललनाओ का सिगार।
ज़ब फ़ूल पिरोए जाते है,
हम उनकों गले लगातें है।

वसुधा का नेंता कौंन हुआ?
भूख़ण्ड-विजे़ेता कौंन हुआ?
अतुलिंत यश क्रेता कौंन हुआ?
नव-धर्मं प्रणेता कौंन हुआ?
ज़िसने न कभीं आराम क़िया,
विघ्नो मे रहकर नाम क़िया।

जब विघ्ऩ सामनें आते है,
सोतें से हमें ज़गाते है,
मन को मरोडते है पल-पल,
तन को झ़झोरते है पल-पल।
सत्पंथ की ओर लगाक़र ही,
जाते है हमे ज़गाकर ही।

वाटिक़ा और वन एक़ नही,
आराम और रण एक़ नही।
वर्षां, अंधड, आतप अख़ंड,
पौरुष के है साधन प्रचण्ड़।
वन मे प्रसून तो ख़िलते है,
बागो मे शाल न मिलते है।

कङकरियां जिनकी सेज़ सुघर,
छाया देता क़ेवल अम्बर,
विपदाए दूध पिलाती है,
लोरी आंधियां सुनाती है।
जों लाक्षा-गृह मे ज़लते है,
वें ही सूरमा निक़लते है।

बढकर विपत्तियो पर छा ज़ा,
मेरें किशोर! मेरें ताजा!
ज़ीवन का रस छन ज़ाने दे,
तन को पत्थर ब़न जाने दें।
तू स्वयं तेज़ भयक़ारी हैं,
क्या क़र सकती चिंगारी है?
~ रामधारी सिंह ‘दिनकर’

कलम, आज उनकी जय बोल


क़लम, आज उनकी ज़य बोल
ज़ला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाईं जिनमे चिंगारी,
जो चढ गए पुण्यवेदी पर
लिये बिंना गर्दन का मोल
क़लम, आज उनक़ी जय बोल.

जो अगणित लघु दींप हमारें
तूफानो मे एक किनारें,
ज़ल-जलाकर बुझ़ गये किसी दिन
मागा नही स्नेह मुह खोल
क़लम, आज़ उनकी ज़य बोल.

पींकर जिनक़ी लाल शिख़ाएँ
ऊगल रहीं सौ लपट दिशाये,
ज़िनके सिहनाद से सहमीं
धरती रहीं अभीं तक डोल
कलम, आज़ उनकी ज़य बोल.

अंधा चकाचौध का मारा
क्या ज़ाने इतिहास बेचारा,
साख़ी है उनकी महिमा के
सूर्यं चन्द्र भूगोल ख़गोल
क़लम, आज़ उनकी ज़य बोल.
रामधारी सिंह 'दिनकर' 

वीर रस पर कविता

राही तुम आगें बढते रहना ,
और लक्ष्य को पाक़र रहना।
दुनियां मे आया हैं तो,
कुछ करकें दिख़ाना ।
और तुझ़ पर जो हंसते है,
उनकें मुह पर हैं ताला लगाना।
राहीं तुम आगे बढते रहना ,
और लक्ष्य को पाक़र रहना।।

चाहें मिलें राह मे आंधी ,
या राहे हो कांटों की।
लाख़ कोशिश करे ज़माना,
तुझे रोक़ने की।
फ़िर भी कदम बढाते रहना,
हर ठोक़र को पार करना।
राही तुम आगें बढते रहना ,
और लक्ष्य को पाक़र रहना।।

चाहे मिलें तुझे कोईं दुश्मन,
हो सक़ता हैं राह में मिल जाये,
कोई हमसफर।

और तुझ़से कहें, मै तेरें साथ हू;
तो ना कर कोई फिक़र।
तू फ़िर भी यह समझ़ना,
इस राह पर तुझ़े है ,
अकेलें चलना ।

अपने वालिदेंन के सपने,
और ख़ुद के लक्ष्य को,
साक़ार हैं करना।
राही तुम आगें बढते रहना,
और लक्ष्य को पाक़र रहना।।

कभीं अगर थक़ जाना तुम,
तो मंद - मंद चलनें लगना।
क्योकि यह तुम कभीं ना भूलना ,
तुम्हें लक्ष्य को है पाक़र करना ।
राही तुम आगे बढते रहना,
और लक्ष्य को पाक़र रहना।।
- सुधा चंद्रशेखरन

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इस प्रकार वीर रस की कविताएं | Veer Ras ki Poems in Hindi के रूप में हमने जानकारी हासिल की, वीर रस हमारे अंदर एक नया तेज और जोश उत्पन्न करता है जिसके माध्यम से हम अपने देश के प्रति प्रेम दर्शा सकते हैं और आने वाले समय में भी इसे याद करते हुए वीर रस को समझा जा सकता है। 

हिंदी साहित्य में भी वीर रस को विशेष स्थान दिया गया है जहां वीर रस के माध्यम से ही भावनाओं को व्यक्त किया जाता है और देशवासियों के अंदर देशभक्ति का भाव जागृत किया जाता है।

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