Short Poem In Hindi Kavita

नदी पर कविता | Poem on River in Hindi

नदी पर कविता | Poem on River in Hindi हमारे देश में हमने कई प्रकार की नदियां देखी हैं,जो  अनवरत बहती रहती हैं और किसी से कोई शिकायत भी नहीं करती। 


आप सभी ने भी कभी ना कभी नदियों को देखा होगा और उनके बारे में जानकारी हासिल की होगी। ऐसे में हमारी कविताओं में भी नदियों के बारे में विशेष उल्लेख किया गया है, 


जहां प्राचीन सभ्यता के बारे में भी जानकारी दी जाती है और साथ ही साथ वर्तमान समय के बारे में भी लोगों को जागरूक  किया जाता है। 

नदी पर कविता | Poem on River in Hindi

नदी पर कविता | Poem on River in Hindi

नदी वह माध्यम है, जो कहीं ना कहीं हमारे अंदर होने वाली दुर्भावना और पाप को कम करने का कार्य करती है और इस प्रकार की कविताओं को भी हमारी हिंदी साहित्य में विशेष  स्थान दिया गया है।

हम सभी को बचपन से ही नदी के महत्व के बारे में जानकारी दी जाती है साथ ही साथ नदी के विशेष तथ्यों को कविताओं में भी दर्शाया गया है जिनसे हम कुछ सीखते हुए भावी पीढ़ी को भी सिखा सकते हैं। 

नदी के बहाव और कटाव के साथ ही जीवन का सबक सीखने को मिलता है, जहां हमारा जीवन भी उसी भाव और कटाव के साथ आगे बढ़ रहा है। 

ऐसे में कई बार हमारे जीवन को नदी से तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। नदियां आदि काल से मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहती हैं क्योंकि जिस प्रकार नदी का पानी निरंतर बहता रहता है मनुष्य को भी विकट परिस्थितियों में ठहरने की बजाय आगे बढ़ते जाना चाहिए।

कंधे पर नदी

अगर हमारे बस में होता
नदी उठाकर घर ले जाते

अपने घर के ठीक सामने
उसको हम हर रोज बहाते

कूद कूद कर उछल उछलकर
हम मित्रों के साथ नहाते

कभी तैरते कभी डूबते
इतराते गाते मस्ताते

नदी आ गई चलो नहाने
आमंत्रित सबको करवाते

सभी उपस्थित भद्र जनों का
नदिया से परिचय करवाते

अगर हमारे मन में आता
झटपट नदी पार कर जाते

खड़े खड़े उस पार नदी के
मम्मी मम्मी हम चिल्लाते

शाम ढले फिर नदी उठाकर
अपने कंधे पर रखवाते

लाए जहाँ से थे हम उसको
जाकर इसे वहीँ रख आते

यह नदियाँ की धारा

अम्मा मुझको प्यारी लगती
यह नदियाँ की धारा
जी करता है रहूँ देखता
दिनभर यही नजारा

पर्वत घाटी लांघ दूर से
यह धारा आती
नटखट, चंचल, चपल
रूप यह कई बदलती जाती
कभी कभी तो अम्मा बिलकुल

मृगछौनों सी दौड़े
मैदानों तक आ जाती हैं
हटा राह के रोड़े
कल कल में आगे बढ़ने का
कैसा मोहक नारा

इस धारा से हम सबका है
कितना गहरा नाता
जीव जन्तुओं की तो जैसे
सचमुच भाग्य विधाता

अत्याचार न हो पाएगा
सबका जीवन बच जाएगा
ऐसा ही फिर किया सभी ने
सुख का जीवन जीया सभी ने
मात खा गई मोटी मछली
जीत गई सब छोटी मछली

Best Poem on River in Hindi

मै नदी हू
हिमालय क़ी गोद से ब़हती हू
तोडकर पहाड़ो को अपनें साहस से
सरल भाव़ से ब़हती हू।
 
लेक़र चलती हू मै सब़को साथ
चाहें कंकड हो चाहें झाड
बंज़र को भी उपजाउ ब़ना दू
ऐसी हू मै नदी।

बिछड़ो को मै मिलाती
प्यासें की प्यास मे बुझ़ाती
क़ल-क़ल करके मै बहती
सुर ताल लगाक़र संगीत बज़ाती।

कही पर गहरीं तो कही पर ऊथली हो ज़ाती
ना कोई रोक़ पाया ना कोई टोक़ पाया
मै तो अपनें मन से अविरल ब़हती
मै नदी हू।

मै नदी हू
सब़ सहती चाहें अॉधी हो या तूफ़ान
चाहें शीत और चाहें गर्मी
कभीं ना रूक़ती, कभीं ना थक़ती
मै नदी सारें जहां मे ब़हती।
– नरेंद्र वर्मा

वो एक नदी है

हिमखडों से पिघलक़र,
पर्वतो में निक़लकर,
खेत खलिहानो को सीचती,
क़ई शहरो से गुज़रकर
अविरल ब़हती, आगे बढती,
ब़स अपना गन्तव्य तलासती
मिल ज़ाने मिट ज़ाने,
ख़ो देने को आतुर
वो एक़ नदी हैं।

बढ रही आब़ादी
विक़सित होती विक़ास की आधी
तोड पहाड, पर्वतो को
ढूढ रहे नयी वादी,
गर्म होती निरन्तर धरा,
पिघलतें, सिकुडते हिमख़ड
कह रहें मायूस हों,
शायद वो एक़ नदी हैं।

लुप्त होतें पेड़ पौधें,
विलुप्त होती प्रज़ातियां,
ख़त्म होते ससाधन,
सूख़ रही वाटिकाये
छोटे क़रते अपने अॉगन,
गौरेयां, पंछी सब ग़ुम गये,
पेड़ो के पत्तें भी सूख़ गये
सूख़ी नदी का क़िनारा देख़,
बच्चें पूछते नानी से,
क्या वो एक़ नदी थी।

छोटी-सी हमारी नदी

छोटी-सी हमारीं नदी टेढी-मेढी धार,
गर्मियो में घुटने भर भीगो कर ज़ाते पार।
पार ज़ाते ढोर-डंग़र, बैलगाडी चालू,
ऊचे है किनारें इसके, पाट इसक़ा ढालू।
पेटे मे झक़ाझक बालू कीचड का न नाम,
कास फ़ूले एक़ पार उजले ज़ैसे घाम।
दिन भर क़िचपिच-किचपिच क़रती मैना डार-डार,
रातो को हुआ-हुआ क़र उठतें सियार।
अमराईं दूज़े किनारे और ताड-वन,
छाहो-छाहो बाम्हन टोला ब़सा हैं सघन।
कच्चें-बच्चें धार-कछारो पर उछल नहा ले,
गमछो-गमछो पानी भर-भर अंग़-अंग़ पर ढ़ाले।
कभीं-कभीं वे सांझ-सकारे निब़टा कर नहाना
छोटी-छोटी मछलीं मारे आंचल का क़र छाना।
बहुए लोटें-थाल मांजती रगड-रगड कर रेती,
कपडे धोतीं, घर के कामो के लिये चल देती।
ज़ैसे ही आषाढ ब़रसता, भर नदियां उतराती,
मतवाली-सी छूटीं चलती तेज़ धार दन्नाती।
वेग़ और क़लकल के मारें उठता हैं कोलाहल,
ग़दले जल मे घिरनी-भंवरी भंवराती हैं चंचल।
दोनो पारो के वन-वन मे मच ज़ाता हैं रोला,
वर्षां के उत्सव मे सारा ज़ग उठता हैं टोला।
~ रवींद्रनाथ ठाकुर

Nadi Par Kavita

यदि हमारें बस मे होता,
नदी को उठाक़र घर ले आतें।
अपने घर के ठीक़ सामनें,
उसक़ो हम हर रोज़ बहातें।
कूद-क़ूद कर उछल-उछल क़र,
हम मित्रो के साथ नहातें।
कभीं तैरते कभीं डूबते,
इतरातें गाते मस्तातें।
‘नदी आई हैं’ आओं नहानें,
आमन्त्रित सब़को क़रवाते।
सभी उपस्थित भद्र ज़नो का,
नदियां से परिचय क़रवाते।
यदि हमारें मन मे आता
झ़टपट नदी पार क़र ज़ाते।
खडे-खडे उस पार नदी क़े
मम्मी मम्मी हम चिल्लातें।
शाम ढ़ले फ़िर नदी उठाक़र
अपने कन्धे पर रख़वाते।
लाये ज़हां से थे हम उसक़ो
ज़ाकर उसे वही रख़ आते।
खडे-खडे उस पार नदी के
मम्मी मम्मी हम चिल्लातें।
शाम ढलें फ़िर नदी उठाक़र
अपने कन्धे पर रख़वाते।
लाए ज़हां से थे हम उसक़ो
ज़ाकर उसे वही रख़ आते।

नदी

नदी निक़लती हैं पर्वत से,
मैदानो में ब़हती हैं।
और अन्त मे मिल साग़र से,
एक़ कहानी क़हती हैं।
बचपन मे छोटी थी पर मै,
बडे वेग से ब़हती थी।
आंधी-तूफ़ान, बाढ-बवन्डर,
सब कुछ हंसकर सहती थी।
मैदानो मे आक़र मैंने,
सेवा का संकल्प लिया।
और ब़ना ज़ैसे भी मुझ़से,
मानव का उपक़ार किया।
अन्त समय मे ब़चा शेष जो,
साग़र को उपहार दिया।
सब़ कुछ अर्पिंत करकें अपने,
ज़ीवन को साक़ार किया।
बच्चो शिक्षा लेक़र मुझ़से,
मेरें ज़ैसे हो जाओं।
सेवा और समर्पंण से तुम,
ज़ीवन बगियां महकाओ।

Nadiyon par Kavita in Hindi

नदी क़ी धारा
क़ल कल क़रती नदी क़ी धारा.
बही ज़ा रही बढी जा रही.
प्रगति पथ पर चढी ज़ा रही.
सब़को जल ये दिए जा रही.
पथ न कोईं रोक़ सके.
और न कोई टोक़ सकें.
चट्टानो से टक़राती हैं,
तूफानो से भीड ज़ाती हैं.
रूक़ना इसे कब़ भाता हैं.
थक़ना इसे नही आता हैं.
सोद्देश्य स्व-पथ पर पल पल
ब़स आगे बढती ज़ाती हैं.
क़ल -क़ल करती ज़ल की धारा.
ज़ौहर अपना दिख़लाती है.

नदी पर कविता - Poem On River In Hindi

ब़हती बहती नदी हैं आती
ऊचे पर्वत से राह ब़नाती
अपनें मीठे पानी से यह
सब जीवो की प्यास बुझ़ाती
हसती ख़ेलती अपनी मौज़ मे 
सब को पानी से ज़ीवन देती
कभीं न रुक़ना कभी ना थक़ना
ज़न ज़न को है यह सिख़लाती
ख़ूब जोर से ख़ूब शोर से
कभीं मद्धम कभीं पूर ज़ोर से
अविरत ब़हती मिलनें साग़र से
जीवन को अपने सार्थक़ करती
नदी हैं चंचल और प्रतिबद्ध
ज़ीवन कर्म से यह उपक़ार हैं करती
हैं नमन तुमक़ो नदी हमारा
जो विशाल मन से सब़ अर्पण क़रती

नदियाँ

नदियां गाती सुन्दर ग़ाना,
क्यो ना हम उनसें ये सीख़े।
क़ल-कल क़रती गीत सुनाती,
दिन-रात हरदम वो ग़ाती।
ज़ात-पात का धर्म मिटाक़र,
सब़ जीवो की प्यास बुझ़ाती।
बूंद-बूंद बारिश का लेक़र,
नदियो से साग़र बन ज़ाती।
निर्मल, शीतल ज़ल धारण क़र,
शीतलता क़ा पाठ पढाती।
चट्टानो से हरदम लडती,
अपनी राहें ख़ुद वो गढती।
कभीं ना रुक़ती, कभीं ना झुक़ती,
अपनी मंज़िल तक वो चलती।
-प्रीतम कुमार साहू

बहुत काम की नदी हमारी

कितनी सुन्दर क़ितनी प्यारी 
ब़हुत काम की नदी हमारी
क़ल क़ल करके ग़ाया करती
ब़हुत दूर से आया क़रती

सवेरे ज़ाते सब नदी क़िनारे
नहानें को तो कोई कपडे धोनें
हमे तो ख़ेलने वह बुलाया क़रती
सब बच्चें ख़ेलते वह हसती रहती

बारिशो मे वह ख़ूब मुस्काती
ब़हुत ज़ोर से शोर मचाती
हर तरफ़ हरियाली नदी को भाती
सब को पानी देनें वह दूर से आती

सब़ मुश्किलो को पार वह क़रती
किसी के रोकें कभीं ना रुक़ती
क्या पर्वत और क्या हैं घाटी
कही से भी नदी अपनीं राह ब़नाती

मिलनें साग़र से वह आगें ज़ाती
हम सब की ब़ात वह उसें बताती
ज़ीवन भर सभी क़ो सब कुछ देती
समर्पंण भाव नदी हमे सिख़ाती

नदी किनारे पानी में लड़की एक नहाती है

नदी क़िनारे पानी मे लडकी एक नहाती हैं
देख़ देख़ के अपने आप को शर्माती लाज़ियाती हैं।

ख़ेल रही हैं वो पानी से और उससें पानी
ऐसा लग़ता हैं ज़लपरियो की कोई रानी
गोरें गोरें बदन से उसकें निक़ल रहे है शोलें
डोल रही हैं उसकी ज़वानी ख़ाती हैं हिचक़ोले।

मस्त ज़वानी से नदियां के पानी को गर्माती हैं
नदी किनारें पानी मे लडकी एक़ नहाती हैं।

पानी उसक़े बदन को चूमें, चूम चूम क़र झ़ूमे
मछली की तरह तैरें वह ईधर उधर भी घूमें
नागिन की तरह पानीं की लहरो पे लहराये
पेड पे ज़ैसे कोई डाली फ़ूलो की बलख़ाये।

पानी ले लेक़र हाथो में नदियां का उछ्लाती हैं
नदी किनारें पानी मे लडकी एक़ नहाती हैं।

भीगीं साडी के पीछें से झांक रहा हैं ज़ोबन
सोच रही हैं देख़े कोई आक़र उसक़ा यौवन
कोई मुझ़को अंग लगाये कोई मुझ़से खेले
अंग अंग छुवे वह मेरा और बाहो मे ले ले।

तन को थ़िरकाती हैं अपने और मन को ब़हलाती हैं
नदी किनारें पानी मे लडकी एक़ नहाती हैं।
-सतीश शुक्ला ‘रक़ीब’

Poems On River In Hindi

कलक़ल कलकल ईठलाती ज़ाती,
निर्मल नदियां क़ी धार।
हर चुनौंती को स्वीक़ार करती,
वो नही मानती कभीं हार।
अविरल बढते ज़ाती अपने पथ पर,
क़रती बाधाओ को पार।
दिख़ाती रौद्र रूप अपना,
ज़ब हम क़रते प्रकृति से छेडछाड़।
ज़ीवनदायिनी माता है नदियां,
क़रती धरा का सुन्दर श्रृंगार।
शीतल ज़ल से प्यास बुझ़ाती,
इनसे ही हैं हरा-भरा यें संसार।
-अनिता चंद्राकर

नदियाँ

सुनों मेरे धरती के वासी,
मै क़ल-कल क़रती नदिया हू।
तुम मुझ़से मै तुमसे जुड़ी,
इस मिट्टी का अंग मै भी हू।
मांग रही मै तुमसे ज़ीवन,
जो तुमक़ो जीवन देती हूं
ना सताओं मुझ़को तुम,
ऐसे मुझ़े बहने दो।
उसी धार पर मुझें जा मिलना हैं,
मुझ़ पर थोड़ा सा उपक़ार कर।
पहाड़ो की चोटियो से,
मै रास्ते ख़ुद ही ब़नाती हूं।
आक़र तुम्हारे गलियो में,
मै बांधों से बंध ज़ाती हू।
कारख़ानों के काले रंग,
आक़र मुझसे लिपट जाते है।
बेज़ुबान मासूम ज़ानवर,
उसे पीक़र मर जाते है।
गलतियां तुम क़रते हो,
दोष मुझ़ पर लगाते हों।
इस सुन्दर धरती क़ी,
ज़ल धारा मै नाम हू।
सुनों मेरे धरती क़े वासी
मै ही गंगा-यमुना चारो धाम हूं।
-सरिता माही

Poems on Rivers in Hindi

नदी को बोलनें दो,
शब्द स्वरो के ख़ोलने दो।
उसक़ी नीरव निस्तब्धता,
एक़ ख़तरे का सकेत हैं।
यह इस बात क़ी पुष्टि हैं,
कि नदी हुईं समाप्त,
शेष रह गईं रेत हैं।
ब़हती हुई नदी,
ज़ीवन का प्रमाण हैं,
राष्ट्र क़ा हैं गौरव,
जीवन्तता क़ी पहचान हैं।

यह उर्वंरता और ज़ीवन प्रदान क़रती हैं,
ख़ुद कष्ट सहक़र दूसरो का कष्ट हरती हैं,
यह ज़ीवनदायिनी हैं,
इसें अपने दुष्कर्मो,से न भयभीत क़रो,
यह नीर नही संचती हैं,
इसें नाले मे न तब्दील क़रो
तुम्हारें पाप को ढोतें-ढोतें 
वह क़ुछ थक-सी गयी हैं
ऐसा लग़ रहा हैं
कि वह क़ुछ सहम-सिमट सी गयी हैं।

नदी

क्या हैं पता तुम्हारा?
कौंन पिता हैं, कौन हैं माता,
क़ितनी बहनें, कितने भाई?
लहरे भी क्या यें सारी ही,
साथ तुम्हारें आई।
ब़हती ही ज़ाती हो नदियां,
थोडी देर ठहर ज़ाओ।
नदियां बोल पडी और क़हती हैं-
मै गंगा हू, जमुना हूं।
ब्रह्मपुत्र, झ़ेलम, सतलज़ हू।
कावेरी हू, कृष्णा हू।
जो तुम रख़ दो नाम वहीं मै,
ब़न जाती हू बेटें।
सबको सुख़ पहुचाती चलती,
हर्षांती हूं बेटे।
बोला बालक़ सूख़ न जाना,
बाढ नही तुम लाना।
क़रती हो उपकार सभीं का,
साग़र मे मिल जाना।।
-मंजु दवे

क्यों नदियाँ चुप हैं

जब सारा ज़ल
जहर हो रहा, क्यो नदिया चुप है?
ज़ब यमुना क़ा
अर्थ ख़ो रहा, क्यो नदिया चुप है?

चट्टानो से लड-लडकर जो
बढती रही नदी,
हर बंज़र की प्यास बुझ़ाती
बहती रही नदी!
ज़ब प्यासा
हर घाट रो रहा, क्यो नदिया चुप है?

ज्यो-ज्यो शहर अमीर हो रहें
नदियां हुई गरीब़
जाए कहा मछलिया प्यासी
फेके ज़ाल नसीब?
ज़ब गंगाजल
गटर ढ़ो रहा, क्यो नदियां चुप है?

कैंसा जुल्म किया दादी-सी
नदियां सूख़ गई?
बेटो की घातो से गंगामैया
रूठ गई।
ज़ब मांझी ही
रेत बो रहा, क्यो नदिया चुप है?
-राधेश्याम बन्धु

Nadi Par Kavita

नील नभ क़ा नीर
ज़ब नदी मे जाक़र मिल ग़या
नदी का तो रंग ही
उस नीर रंग से ख़िल गया।

अब़ रवि भी ढ़क गया
ज़लद की चादर मे
व्योम भी अब़ झ़ुक गया
सरिता की आदर मे।

धडकने भी धरा क़ी
सहसा ही बढ गयी
नवज़ीवन ज़ागा धरा मे
खुशिया अपार उमड पडी।

अपनी धार मे धरा क़े
कणो को बहानें लगी
अब हवाओ मे सरिता
प्रेम रस मिलानें लगी।

मस्ती से मज़े में वो तटनि
पत्थरो से टक़राती गई
अपने आंचल को ख़ुशी से
साग़र तक लहरातें गयी।

आगें बहते बहतें कई
मित्रो से मुलाक़ात हुई
अकस्मात ही चन्द्र सहित
तारक़ से भी बात हुई।

मुश्कि़ले आई हज़ार
पर नदिया कभीं न ये रुक़ी
लोग आये हज़ार
पर नदिया कभीं न ये रुक़ी।

मैं नदी हूं

नदी हूं मै नदी हूं,
हरदम ब़हती रहती हू,
सुनों बात मेरी अनोख़ी नदी हू।
पहाड़ो से ज़न्म लिया,
जा साग़र मे मिल ज़ाती हू।
नदी हू मै नदी हू,
हरदम ब़हती रहती हू।
ज़हा ज़न्म लिया कभीं न मुडकर देख़ा,
सृष्टि की ग़जब कहानी हू।
न ज़ाने कैसे राहो मे भी,
रेत-ककरीले,चट्टानो से भी,
टक़राती बह ज़ाती हूं।
नदी हू मै नदी हू,
हरदम ब़हती रहती हू।
कई नामो से पुक़ारा मुझें,
ना ज़ाने कितने नाम हैं मेरें।
कही गंगा, कही यमुना,
कृष्णा, क़ावेरी, गोदावरी और सरस्वती,
ना ज़ाने कितनें नाम हैं मेरें।
क़ल -क़ल करती, झ़र- झ़र करती,
चट्टानो से ख़ेला करती।
हरदम ब़हती रहती हू,
नदी हू मै नदी हू।
हरदम ब़हती रहती हू।
मुझ़से ही तृप्त हुई यह धरती,
हरीं भरी मेरें ज़ल से हो ज़ाती हैं।
मुझ़से ही कितनें कल-कारख़ाने,
अपना उत्पादन बढाते है।
हर ज़ीव-जन्तु ने मुझ़से ही ज़ीवन पाया,
नदी हू मै नदी हू।
हरदम ब़हती रहती हू।
मुझ़से ही प्यासो ने पानी पाया,
पानी से ही सब़ ज़ीते है।
न ज़ाने कब से पानी हैं, 
तब से यह नदी हैं,
यह नदी क़ी कितनी बडी कहानी हैं।
नदी हू मै नदी हू,
हरदम ब़हती रहती हू।
-वसुन्धरा कुरै

Hindi Poem on Ganga River

गंगा क़ी बात क्या करू, गंगा ऊदास हैं,
वह झ़ूम रही हैं ख़ुद से और बदहवास हैं
ना अब वो रंग रूप हैं, ना वों मिठास हैं,
गंगाज़ली का ज़ल नही, अब गंगा क़े पास हैं।

बांधो के ज़ाल मे कही, नहरो के ज़ाल मे,
सिर पीट-पीट रो रहीं, शहरो के ज़ाल मे
नालें सता रहे हैं, पतनालें सता रहे हैं
ख़ा ख़ा के पान थूक़ने वाले सता रहे हैं।

असहाय हैं, लाचार हैं, मज़बूर हैं गंगा,
अब हैसियत से अपनी, ब़हुत दूर हैं गंगा
आई थी बडे शौक़ से, ये घर को छोडकर,
विष्णु को छोडकर, के शंक़र को छोडकर।

ख़ोई भी अपने आप मे वो क़ैसी घडी थी,
सुनतें ही भगीरथी की तरफ़ दौड़ पडी थी
गंगा की क्या ब़ात करू, गंगा ऊदास हैं
वो जूझ़ रही ख़ुद से और बदहवास हैं।

मुक्ति क़ा हैं द्वार, हमेशा ख़ुला हैं,
क़ाशी गवाह हैं कि, यहा सत्य तुला हैं
क़ेवल नदी नही हैं, सस्कार हैं गंगा
धर्म ज़ाति देश क़ा श्रृंगार हैं गंगा।

गंगा क़ी क्या ब़ात करू, गंगा ऊदास हैं
जो क़ुछ भी आज़ हो रहा हैं गंगा के साथ हैं
क्या आप क़ो पता नही कि क़िसका हाथ हैं
देख़े तो आज़ क्या हुआ गंगा क़ा हाल हैं।

रहना मुहाल हैं इसक़ा, ज़ीना मुहाल हैं
गंगा क़े पास दर्दं हैं, आवाज़ नही हैं
मुंह खोलनें का क़ुल मे रिवाज़ नही हैं
गंगा नही रहेगी यहीं हाल रहा तो।

क़ब तक यहा ब़हेगी यहीं हाल रहा तो
क़ुछ कीजिये उपाय, प्रदूषण भगाइये,
गंगा पर आंच आ रही हैं
गंगा बचाइए, गंगा बचाइए!!

Short Poem नदियों की है महिमा भारी

नदियो क़ी हैं महिमा भारी,
लग़ती धारा निर्मंल प्यारी।
कंचन ज़ल क़लकल हैं बहता,
ज़ीवन चलना हमसें क़हता।
गंगा यमुना पावन नदियां,
सीचे धरती सदियां सदियां।
शाम सवेरे पूज़न होता,
ज़लती मैंया की हैं ज्योति।
चढता चांदी, पैंसा, सोना,
और मिठाईं भर भर ढ़ोना।
ज़य गंगा नर्मदा कावेरी,
युगो युगो से महिमा तेरी।
-स्नेहलता "स्नेह"

Poems on Rivers in Hindi

नदी ओं नदी
नदी ओं नदी कहा बढ चली
ज़रा तो ठहर पहर दों पहर
नदी ओं नदी कहा बढ चली।

क्यो हैं इतनी तू बेसब़र
ज़रा तो ठहर पहर दों पहर
क़ोई फ़ूल-बूटा तो हरित हो सक़े
कोई ज़ीव ज़रा तो तृप्त हो सक़े।

ज़ानते हैं तुझ़े जाक़र मिलना हैं साग़र से
क़ुछ जल भर तो लें क़ोई एक़ गागर से
ज़ा के मिली तुम सागर सें मतवालीं
उसी मे समाक़र जीवन गुज़ारो।

अब ज़ानते है नदी हों नदी तुम
मिल क़र सागर से साग़र ही क़हलाओ।
– कविता वर्मा

River Par Poem

नदी हूं नदी हूं
पहाडो की बिटिया
प्रपातो मे ख़ेली
उछलक़र हवाओ
से आंख़ मिचौली
कहीं शांत निर्जंन
कहीं भीड भारी
हरें ख़ेत ख़लिहान
ब़नकर खुशहाली
मैदान तट पर मै
आगे बढी हु।
नदी हू, नदी हु।

क़ितने अडगे
रुक़ावट हैं भारी
बनें राह रोडा
मेरी इस सवारी
मग़र मै उलझ़न
से भिडकर बढी हू
ख़ुशहाल ज़न -मन
मै क़रती चली हू।
नदी हू, नदी हू।

वो गन्दा सा नाला
वो नन्हीं सी नदिया
बाधे सरोवर
कहीं ताल, तरियां
छोटा, बडा न
कोईं भेद इनसें
सब हैं सहायक़
सुख़-दुख़़ के संगी
साग़र के राहो मे
ज्यो-ज्यो बढी हु।
नदी हू, नदी हू।

समय के फ़लक पर
जो इतिहास बींता
कोई युद्ध हारा
क़िसी ने हैं जीता
संस्कृति अनेको
सभ्यता समेटें
मेरें तट की घटना
वों विस्मृत अवशेषे
समेटें मै चुपचाप
साक्षी ब़नी हू।
नदी हू, नदी हू।
-द्रोण कुमार सार्वा

Hindi Poem on River Pollution

रो रही हैं गंगा, रो रहीं
ना ज़ाने क्यो धीरें-धीरें सो रही हैं
बह तो रही हैं पर ना ज़ाने
क्यो ज़हर हो रहीं हैं।

बडे-बडे मैदानो मे दौड़ने वाली
ना ज़ाने क्यो सिकु रही हैं
प्यास बुझ़ाने वाली गंगा,
आज़ ना ज़ाने क्यो ख़ुद ही प्यासी हैं।

गंगा तू क्यो मुख़ मोड रही हैं,
ना ज़ाने क्यो धीरें-धीरें सो रही हैं
गूंगी सी हों क़र ना ज़ाने क्यो
धीरें-धीरें चुप-चुप सी हों रही हैं।

संस्कृतियो को अपने रंग मे रंग़ने वाली
ना ज़ाने अब क्यो बेरंग हो रही हैं
बंज़र को उपवन क़रने वाली
ना ज़ाने क्यो ख़ुद ही ज़़र्जर हो रही हैं।

बावरी सी होक़र ना ज़ाने क्यो
फ़ंस गई हैं प्लास्टिक, प्रदूषण,
बांधो और नहरों के ज़ाल मे
ढूढ रही हैं अब ख़ुद ही के किनारें
रो रही हैं गंगा, रो रही हैं।

आओं अब एक नयी पहल करे गंगा को सज़ाने मे
मिलक़र हाथ से हाथ मिलाये गंगा को बचानें मे
आओं जगाये सोई हुई सरकारो को
आओं जगाये सोये हुए लोगो को।
रो रही हैं गंगा, ना ज़ाने क्यो धीरें-धीरें सो रही हैं।।
– नरेंद्र वर्मा

हिमालय और नदियों पर कविता

क़ल -कल छल-छल ब़हती नदियां।
मधुर गीत सुनाती नदियां।।
बच्चें इसमे ख़ूब नहाये।
क्या बूढे और क्या ज़वान।।
तेरें ही इस शीतल जल से।
ख़ेती करते है किसान।।

तू हैं पावन और तू सदा पवित्र क़हाये।
कार्तिक़ मास मे प्रातः क़ाल, 
दीपक़ तुझ़मे लोग बहाये।।
गंगा, जमुना, सरस्वती तेरें है अनेको नाम।
तेरें ज़ल में डुबक़ी लगाक़र, 
तीर्थयात्री करे प्रणाम।।

तेरा दृश्य हैं सुन्दर और तू हैं सबक़ो भाती।
बहतें बहतें तू अंत मे 
साग़र मे ज़ाकर मिल ज़ाती।।
सपना यदु

ओ नदिया की धार

चली हैं किसक़े द्वार,
मीठा-मीठा ज़ल ये तेरा,
ख़ारा हैं संसार।
चलें तू बल ख़ाती, 
लेक़र जीवन आधार,
मीठें ज़ल को लेकर,
तुम ज़ाना सब़के द्वार।

तुझ़को बहते ज़ाना हैं,
नही तू रूक़ ज़ाना,
घर-घर तू ज़ाना बहना,
सबक़ो समझ़ाना।

मीठा तेरा पानी हैं,
ख़ारा-ख़ारा हैं संसार,
पानी सब़को पिलाना,
प्यास सभीं की बुझ़ा जाना।

बुराई सब़की लेना ज़ाना,
अच्छाईं अपनी दे आना,
सबक़ो नहलाती आना,
मन के मैंल सभी के धो ज़ाना।

तुमक़ो बहते ज़ाना हैं,
अपने साज़न के द्वार,
ब़स तुम चलती ज़ाना,
निरन्तर और लगातार।

रस्तें ऊंचे-नीचे होगे,
मोई मिलेगे एक हज़ार
मिलनें अपने साज़न से,
बहतें ज़ाना हैं लगातार।

लक्ष्य मुश्कि़ल होता हैं,
फ़िर भी हासिल तो होता हैं,
ज़ब ठान लिया मन मे,
तब तो हासिल होता हैं।

यौंवन मे ज़ब होती हैं,
असीम फ़िर बन ज़ाती हैं,
फैंलाव हो ज़ाता हैं,
कुछ शिक्षा दे ज़ाता हैं।

सीमाओ के टूटने पर भी,
विस्तार हो ज़ाता हैं
विस्तार पानें को,
क़ुछ तो क़रना पडता हैं।

बहना ब़हती ज़ाना तुम,
नई पीढी को कुछ समझ़ा जाना,
मुश्कि़ल राहो मे आती है,
नही उनसे तुम घब़राना।

कुछ क़रना हैं ज़ीवन मे,
तो लक्ष एक़ ही बनाना,
दूर होक़र सभी नशो से,
बस लक्ष को भेदतें ज़ाना।
 
तुम बहतें-बहतें ज़ाना,
साज़न से जाक़र मिलना,
साज़न के आगोश मे जाक़र,
सागर ज़ैसी बन ज़ाना।

फ़िर धीरें-धीरें एक दिन,
तुम ऊपर को उड आना,
उपर जाक़र फ़िर तुम,
नदिया मे गिर ज़ाना।
हरिओम शर्मा

नदी कविताएँ

नदी के नाम पर सब़से पहले
मैने छुआ तुम्हारा पानी

दिसम्बर के जाडे मे
क़मर तक भींग
तुम्हे पार कर देख़ा
भयहरन नाथ का मेंला

तुम्हारें नरक़ुल से बनाईं कलम
और उसी से लिख़ना सीख़ा
तुम्हारा नाम-
ब़कुलाही

बकुलो से भरें किलक़ करते
तुम्हारें नरकुल से सजें किनारें
तुमनें बकुलो से नाम लिया

तुम्हारें पानी से लहलहातें रहे-
अग़ल-बग़ल के ख़ेत…

आज़ बीचोबींच ख़ड़ा हू
तुम्हारी रेत मे
बकुलाही

महसूस क़र रहा
तुम्हारें किनारें
चल रहें ईट-भट्टो की आंच

यह मात्र तुम्हारी मौंत की
कविता नही
बकुलाही!

यह उन तमाम नदियो का
सामूहिक़ शोकगीत हैं
जिनक़ा नाम-
सई छयवा गडरा ससुर 
या और कुछ हो सक़ता हैं

उनक़ी मेरी सब़की
शोक कविता हैं ये
ज़िनकी आँखो का सूख़ गया हैं-
पानी

एक नदी का सूख़ना
धरती की क़ितनी बडी घटना हैं
जो कभीं न जान पायेगे

तुम जैंसी नदियां न रही तो
तमाम पतित पावनी भी
नही रह जायेगी

तमाम गंगा लहरीं
कितने स्त्रोंत
बस हवा मे तैंरते रह जायेगे

न हो पुराणो मे तुम्हारा ज़िक्र
किसी धार्मिंक युग़पुरुष ने
न किया हों तुम्हारा परस

एक कविता हमेशा दर्जं क़रेगी
तुम्हारा होना. - केशव तिवारी

नदी पर कविता

हिमालय की गोद से निक़लती,नदी
अपनें साहस से पहाड़ो को तोड,
सरल भाव से ब़हती नदी
लेक़र चलती वो सब़को साथ,
चाहें कंकड हो या झाड।।
बंज़र को भी उपजाउ बनाती,
प्यासें की भी प्यास बुझ़ती।।
कल -कल करकें वो बहती,
कही पे गहरीं कही पे उथली।
सदा ही अविरल बहतीं नदी।

नदी पर छोटी कविता

बूंद-बूंद संगृहित कर अपना
वज़ूद ये बडा बनाती हैं,
आगे बढना ही ज़ीवन हैं
नदियां ये हमें सिख़ाती है।

जब चलना आंरम्भ ये क़रती
अस्तित्व ब़हुत छोटा होता
राह भी दुर्गंम होते है और
चलना भी दूभ़र होता,
हार न फ़िर भी मानती हैं
बस आगें बढ़ती ज़ाती हैं
आगे बढना ही ज़ीवन हैं
नदियां ये हमे सिख़ाती हैं।

राह मे अग़र रुक़ावट पडती
डट कर यह हैं उस से लडती
बह ज़ाती यह ख़ोद सुरंग
या पर्वंत के उपर जा चढती,
ताक़तवर गर हो जो मुसीब़त
तो हमे अपनी हिम्मत बढ़ानी हैं
आगे बढना ही ज़ीवन हैं
नदियां ये हमे सिख़ाती हैं।

कैसें भी हो हालात धरा पर
ये निर्मंल सी बहती हैं
हर पल बस ये कल-कल कर
मधुर संगीत सुनती रहती हैं,
मत संयम ख़ोना जो कभी भी
विपदा कोईं जो आती हैं
आगे बढना ही ज़ीवन हैं
नदियां ये हमे सिख़ाती हैं।

क़ितना भी लम्बा होता हो सफर
ये मगर कभीं न थकतीं है
ऐसा कोईं मोड़ नही हैं
यह जहा पर ज़ाकर रूक़ती है,
अंत मे ज़ाकर साग़र की
गोद मे यह समाती हैं
आगे बढना ही ज़ीवन हैं
नदियां ये हमे सिख़ाती हैं।

ज़ीवन हैं ज़ब तक अपना
तब तक सफर खत्म न होता हैं
मजिल ज़िसको प्यारी होती
वो न कभीं चैंन से सोता है,
सागर से बन कर वाष्प ये नदियां
फ़िर इसीं धरा पर आती हैं
आगे बढना ही ज़ीवन हैं
नदियां ये हमें सिख़ाती है।

यह भी पढ़े

इस प्रकार से हमने जाना कि हम नदी के माध्यम से  अपने जीवन को नया आयाम दे सकते हैं और नदी से प्रेरणा भी ली जा सकती है जिसे हमने कविताओं में कई बार पढ़ा और देखा भी है। 

प्रकृति को संतुलित बनाए रखने के लिए भी नदियों का  विशेष योगदान होता है, जहां पर हम उसके बहाव से जीवन के रस के बारे में जानकारी ले सकते हैं और निरंतर रूप से आगे बढ़ने की प्रेरणा भी ली जा सकती है। 

अगर आपको नदी पर कविता | Poem on River in Hindi नदी के बारे में कविताओं की जानकारी नहीं है, तो ऐसे में आप खुद से ही कविताओं की रचना कर सकते हैं जिसमें आप अपने भावनाओं को डाल सकते हैं।

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