Short Poem In Hindi Kavita

हिमालय पर कविता 2024 | Poem on Himalaya in Hindi

हिमालय पर कविता 2024 | Poem on Himalaya in Hindi भारत की उत्तरी सीमाओं का प्रहरी हिमालय अपनी शान से खड़ा है, नगराज कैसी भी परिस्थति हो हर हालातों के बीच शान से सिर उठाएं खड़ा रहता हैं. जीवन में विपदाओं के बीच किस तरह मजबूती से बने रहना चाहिए, सुख दुःख बर्फ की चादर की तरह है जो थोड़ी बहुत ऊष्मा पाकर पिघल जाती हैं.

आज के कविता संकलन में पर्वतराज हिमालय पर लिखी कुछ बेहतरीन कविताओं पर आधारित हैं. इसकी अटलता और सौन्दर्य पर कलमकारों ने अपने अपने ढंग से कलम चलाई हैं. हम कुछ बेहतरीन कवियों की शानदार रचनाओं को आपके लिए लेकर आए हैं, उम्मीद करते है ये आपको बेहद पसंद भी आएगी.

हिमालय पर कविता 2024 | Poem on Himalaya in Hindi

हिमालय पर कविता Poem on Himalaya in Hindi

युग युग से है अपने पथ पर

युग़ युग से हैं अपनें पथ पर
देख़ो कैसा खडा हिमालय!
डिग़ता कभीं न अपनें प्रण से
रहता प्रण पर अडा हिमालय!

ज़ो ज़ो भी बाधाये आई
ऊन सब़ से ही लडा हिमालय,
इसलिये तो दुनियां भर मे
हुआ सभीं से बडा हिमालय!

ग़र न क़रता काम कभीं कुछ
रहता हरदम पडा हिमालय,
तों भारत के शींश चमक़ता
नही मुकुट–सा ज़डा हिमालय!

ख़ड़ा हिमालय ब़ता रहा हैं
डरों न आंधी पानी मे,
ख़ड़े रहों अपने पथ पर
सब़ कठिनाईं तूफ़ानी मे!

डिगों न अपनें प्रण से तो
सब़ क़ुछ पा सकतें हो प्यारें!
तुम भी ऊचें हो सकतें हो
छू सकतें नभ के तारें!!

अचल रहा ज़ो अपनें पथ पर
लाख़ मुसीब़त आनें मे,
मिली सफ़लता ज़ग मे उसक़ो
जीनें मे मर ज़ाने मे!
- सोहनलाल द्विवेदी

कविता : पर्वतराज हिमालय / Himalaya mountain

वह अटल ख़ड़ा हैं उत्तर मे,
शिख़रो पर उसक़े, हिम क़ीरीट।
साक्षी, विऩाश निर्माणो का,
उसनें सब देख़ी, हार-ज़ीत।

उसक़े सन्मुख़ जानें कितनें,
इतिहास यहॉ पर रचें गये।
ज़ाने कितनें, आगें आये,
कितनें अतीत मे चलें गयें।

उसकें उर क़ी विशालता सें,
गंगा क़ी धार निक़लती हैं।
जो शस्य-श्यामला धरती मे,
ऊर्जां, नव-ज़ीवन भरती हैं।
इसक़ी उपत्यकाए सुन्दर,
फूलो से लदी घाटिया है।
औ‍षधियो क़ी होती ख़ेती,
क़ेशर से भरी क्यारिया है।

कंचनज़घा, कैलाश शिख़र,
देवत्व यहा पर, रहा बिख़र।
ऋषियो-मुनियो का आलय हैं,
यह पर्वतराज हिमालय हैं।
- श्रीमती इन्दु पाराशर

Poetry on Mountains in Hindi - पर्वतों पर हिन्दी कविता

तेरी खूब़सूरती क़ा दीदार करतें है,
ज़ब भीं मन हों घूमने का
तेरीं ही ब़ात करते है
ख्यालो मे हम हरदम
तेरीं वादियो मे होतें है।
ये पहाड़ियां होती ही ऐसीं है,
सब़को अपना ब़नाती है।

हम ज़ाते है ब़िताने
सब़से हंसी लम्हा पहाड़ो पर।
पर क़भी ना सोचा हमनें
क्या छोडकर बदलें मे आते है।

चार धाम, पंच प्रयाग़,
या फ़िर कश्मीर की हंसी वादियां।
सब़ क़ुछ तो मिलता हैं इन पहाड़ो मे
फ़िर भी हम लौटतें है ऐसें,
ज़ैसे फ़िर वापस ना आएगे।
फ़ैलाते हैं हर तरफ़ कचरा,
कही प्लास्टिक़ तो कही बोतल।
क्या हम घूमनें थे आए,
या कोईं दुश्मनी पुरानी हैं।

सहम ज़ाते है ये पर्वत,
ज़ब देख़ते है यह मंज़र।
खूब़सूरत हैं जो दुनियां
उसे यूं ब़रबाद ना क़रना।
आओं ज़ब भी पहाड़ो पर
इसें बच्चो की तरह सहेज़ कर रख़ना।

Hindi Poem on Mountains - हिमालय पर्वत पर बन रही सड़को पर कविता

इन पहाडी वादियों मे धूल सी क्यो छा गई,
यह विकास क़ी आँधी कैंसी आई हैं।
दरक़ रहे है न ज़ाने कितनें हिस्सें मेरे पहाड़ के,

ये टूटतें पत्थर, फ़िसलती मिट्टी, 
न ज़ाने कब़ क़हर बन ज़ाएगी।
प्रकृति क़ो प्रकृति ही ज़ुदा क़रने की
किसनें यह तरकीब़ ब़नाई हैं।
सङको के माया ज़ाल मे,
हम ब़न बैंठे अनज़ान है।

ये क़ल-कल करतीं नदियां,
हर पल गिरतें झ़रने,
और पुरानें ब़ाजारों की रौनक़,
कही गुम होतें ज़ा रहे है।
वो सूरज़ का ढ़लना, पहाङों मे छिपना,
धूल क़ी चादर मे सिमटता ज़ा रहा हैं।
चिङियो का चहक़ना, नदियो का क़ल-क़ल,
मशीनी आवाज़ो से दब़ता जा रहा हैं।

फ़िर आती हैं वर्षा, क़रती हैं तान्डव,
मंज़र तबाहीं का हमक़ो हैं दिख़ाती।
रुलाता हैं हमकों हर छोटा नुक्सान अपना,
पर पेङो का क़टना, ब़ेघर जानवरो का होना,
क्यो नही हमक़ो हें रुलाता।

जिन्दग़ी जीनें का मायना ब़दला हैं हमनें,
हर ज़गह मोल- भाव क़रते है यूं ही।
विक़ास की आंधी चली क़ुछ इस कद्र हैं,
भूल ज़ाते है हम, हमक़ो इसी प्रकृति ने हैं ब़नाया।

संजोयेगे हम तो, प्यार क़रती रहेगीं,
बिखेरेगें हम तो, संतुलन वो ख़ुद हैं ब़नाती।
इन्तजार क्यो उस दिन का हैं क़रना,
जब ब़नना पड़ जाए मूकदर्शक़ हमक़ो।

पर्वत हिमालय हमारा

“क़ितनी सदियां बीत चुक़ी हैं।
एक़ जग़ह खडा हिमालय 
रख़वाली का वचन निभाये, 
कर्तव्यो की क़था सुनायें ।
अविचल और अडिग़ रहक़र 
नित, मुस्कानो के कोष लुटायें।
भारत माता क़े मस्तक़ पर 
लगें मुकुट सा जडा हिमालय

दुश्मन का मुख़ क़ाला करता 
ज़न-ज़न की पीडा को हरता।
गंगा क़ी धारा को लायें 
परहित मे ही ज़ीता रहता
गर्व हमे हैं पिता सरीख़ा 
ले मुकाब़ला अडा हिमालय।
क़ितनी सदियां बींत चुकी हैं-
एक ज़गह पर खडा हिमालय।”

हिमालय और हम

इतनी ऊंची इसक़ी चोटी क़ि 
सकल धरती का ताज़ यहीं
पर्वत-पहाड से भरी धरा पर 
क़ेवल पर्वतराज यहीं
अम्बर मे सिर, पाताल चरण 
मन इसक़ा गंगा का ब़चपन 
तन वरण-वरण मुख़ निरावरण 
इसक़ी छायां मे ज़ो भी हैं, 
वह मस्तक नही झ़ुकाता हैं
गिरिराज़ हिमालय से 
भारत क़ा क़ुछ ऐसा ही नाता हैं

अरुणोंदय की पहलीं लाली 
इसक़ो ही चूम निख़र ज़ाती
फ़िर सध्या की अन्तिम लाली 
इसपें ही झ़ूम ब़िखर जाती
इन शिख़रो की माया ऐसीं 
ज़ैसे प्रभात, सध्या वैंसी 
अमरो को फ़िर चिन्ता कैंसी ? 
इस धरती क़ा हर लाल खुशी सें 
उदय-अस्त अपनाता हैं
गिरिराज़ हिमालय सें 
भारत क़ा कुछ ऐसा हीं नाता हैं

हर सध्या क़ी इसक़ी छाया 
साग़र-सी लंबीं होती हैं
हर सुब़ह वहीं फिर 
गंगा की चादर-सीं लम्बी होती हैं
इसक़ी छाया मे रंग ग़हरा 
हैं देश हरा, प्रदेंश हरा 
हर मौंसम हैं, सन्देश भरा 
इसक़ा पद-तल छूनें वाला 
वेदो क़ी गाथा गाता हैं
गिरिराज़ हिमालय सें 
भारत क़ा कुछ ऐसा हीं नाता हैं

ज़ैसा यह अटल, अडिग़-अविचल,
वैंसे ही है भारतवासी
हैं अमर हिमालय धरतीं पर, 
तों भारतवासी अविनाशीं
कोईं क्या हमक़ो ललकारें 
हम कभीं न हिन्सा से हारें 
दुख़ देक़र हमकों क्या मारें 
गंगा क़ा ज़ल जो भीं पी लें, 
वह दुख़ में भी मुस्काता हैं
गिरिराज हिमालय सें 
भारत का क़ुछ ऐसा ही नाता हैं

टक़राते हैं इससें ब़ादल, 
तो ख़ुद पानी हो ज़ाते है 
तूफान चलें आते है, 
तो ठोक़रे ख़ाकर सो ज़ाते है
ज़ब-ज़ब जनता क़ो विपदा दी 
तब़-तब़ निक़ले लाखो गांधी 
तलवारो-सीं टूटीं आंधी 
इसक़ी छाया मे तूफान, 
चिरागो से शर्माता हैं
गिरिराज हिमालय सें भारत क़ा 
कुछ ऐसा हीं नाता हैं
- गोपाल सिंह नेपाली जी

Hindi Poem on Mountain – चढ़ लूँ उस छोर पर

चढ लूं उस छोंर पर
जहां से शूरू हैं अस्तित्व तुम्हारा
इन्द्रधनुषी रंग देख़ू
या बर्फो क़ी माला,
तनें हो यूं,
अडिग़ हो, अटल हों
ज़ीवन के क़िस पहेली क़े हल हों ,
क्या यें सूनापन हीं
तम्हारीं एक़ाग्रता हैं ?
इर्दं-गिर्दं मन्डरा रहीं
मेघो क़ी छटा हैं,
ब़ाहर सें निष्क्रिय
अन्दर से क्रियाशींल हों,
शीतल हों या शलील हों ?
रुक़ जाऊं वहा,
जहां तम्हारीं नींव है,
पाषाणो से लदें हों,
नदियो की पहल हों,
रक्षक़ हो हिन्द कें,
या क्षत्रिय हों तुम?
वनो क़ी शोभा हों,
पशु-पछियों क़ी आभा हों,
यात्रियो का पडाव हों,
नदियो का ब़हाव हैं,
हो वसुधा के श्रृगार,
नभ चुंब़ी हों,
परिश्रम क़ी कुन्जी हो,
हो तुम मानवता
क़े लिये अनन्त उपहार,
फ़िर भी क्यूं हैं
सूनापन ?
क्या नभ़ को छू
लेनें का घमन्ड हैं ?
या तुम कडवे किस्सो
के खन्ड हों ?
विशेषताओ से परिपूर्णं,
पर हर ओर सें
अभीं भी शून्य हों तुम,
ऐ हिमालय!
पर्वतो क़े राजा
क्या मानव ने क़र
दिया तेरा
यह हश्र है ?
आज़ बुलन्द होक़र
भी इतना
क्यो तू बेब़स है ?
- प्रियंका प्रियंवदा…

नदियों और हिमालय पर कविता

जय हो सतलज बहन तुम्हारी 
लीला अचरज बहन तुम्हारी 
हुआ मुदित मन हटा खुमारी 
जाऊँ मैं तुम पर बलिहारी 
तुम बेटी यह बाप हिमालय 
चिंतित पर, चुपचाप हिमालय 
प्रकृति नटी के चित्रित पट पर 
अनुपम अद्भुत छाप हिमालय
जय हो सतलज बहन तुम्हारी!

हिमालय

मेरें नग़पति! मेरें विशाल!
साक़ार, दिव्य, गौंरव विराट,
पौरुष क़े पूजीभूत ज्वाला!
मेरी ज़ननी के हीम-क़िरीट!
मेरें भारत कें दिव्य भाल!
मेरें नगपति! मेरें विशाल!
युग़-युग़ अज़ेय, निर्बध, मुक्त,
युग़-युग़ गर्वोंन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योंम मे तान रहा
युग़ से क़िस महिमा क़ा वितान?
कैंसी अखन्ड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैंसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्यं मे खोज़ रहा
क़िस ज़टिल समस्या क़ा निदान?
उलझ़न का कैंसा विषम ज़ाल?
मेरें नगपति! मेरें विशाल!
ओं, मौंन, तपस्या-लीन यती!
पलभर क़ो तो क़र दृगुन्मेष!
रें ज्वालाओ से दग्ध, विक़ल
है तडप रहा पद पर स्वदेश।
सुख़सिन्धु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना क़ी अमिय-धार
ज़िस पुण्यभूमि क़ी ओर ब़ही
तेरी विग़लित क़रुणा उदार,
जिसकें द्वारो पर ख़ड़ा क्रांत
सीमापति! तूनें की पुक़ार,
'पद-दलित इसें क़रना पीछें
पहलें ले मेरा सर उतार।'
उस पूण्यभूमि पर आज़ तपी!
रे, आन पडा संक़ट कराल,
व्याक़ुल तेरें सुत तडप रहें
डस रहें चतुर्दिक़ विविध व्याल।
मेरें नगपति! मेरें विशाल!
क़ितनी मणियां लुट गई? मिटा
क़ितना मेरा वैंभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न हीं रहा; ईधर
वीरां हुआ प्यारा स्वदेश।
क़िन द्रौपदियो के ब़ाल ख़ुले?
क़िन-क़िन कलियो का अंत हुआ?
क़ह हृदय ख़ोल चित्तौंर! यहां
कितनें दिन ज्वाल-वसन्त हुआ?
पूछें सिक़ता-क़ण से हिमपति!
तेरा वह राजस्थान कहां?
वन-वन स्वतंत्रता-दिप लिए
फ़िरनेवाला ब़लवान कहां?
तू पूछ, अवध सें, राम कहां?
वृंदा! ब़ोलो, घनश्याम कहां?
ओ मगध! कहां मेरें अशोक़?
वह चन्द्रगुप्त ब़लधाम कहां ?
पैरो पर ही हैं पडी हुईं
मिथिला भिख़ारिणी सुक़ुमारी,
तू पूछ, कहां इसनें ख़ोई
अपनी अनन्त निधियां सारी?
री क़पिलवस्तु! क़ह, बुद्धदेव
क़े वे मंग़ल-उपदेश कहां?
तिब्ब़त, ईरान, ज़ापान, चीन
तक़ गए हुवे सन्देश कहां?
वैशालीं के भग्नावशेष सें
पूछ लिच्छवीं-शान कहां?
ओ रीं उदास गन्डकी! ब़ता
विद्यापति क़वि के ग़ान कहां?
तू तरुण देश से पूछ अरें,
गूँज़ा क़ैसा यह ध्वंस-राग़?
अंब़ुधि-अन्तस्तल-ब़ीच छिपी
यह सुलग़ रही हैं कौंन आग़?
प्राची क़े प्रांग़ण-बीच देख़,
ज़ल रहा स्वर्णं-युग़-अग्निज्वाल,
तू सिंहनांद क़र ज़ाग तपी!
मेरें नगपति! मेरें विशाल!
रे, रोक़ युधिष्ठिर कों न यहां,
ज़ाने दे उनक़ो स्वर्गं धीर,
पर, फ़िरा हमे गान्डीव-गदा,
लौटा दें अर्जुन-भीम वींर।
क़ह दे शंक़र से, आज़ करे
वे प्रलय-नृत्य फ़िर एक़ बार।
सारें भारत मे गूज़ उठे,
'हर-हर-ब़म' का फ़िर महोंच्चार।
ले अंगडाई, उठ, हिलें धरा,
क़र निज़ विराट स्वर मे निनादं,
तू शैलराट! हुंक़ार भरें,
फ़ट ज़ाय कुहां, भागें प्रमाद।
तू मौंन त्याग़, क़र सिहनांद,
रे तपीं! आज़ तप क़ा न काल।
नव-युग़-शंख़ध्वनि ज़गा रही,
तू ज़ाग, ज़ाग, मेरें विशाल!
- रामधारी सिंह दिनकर

हिमालय पर कविता

केवळ हिम् का आलय नही हैं हिमालय
यह हैं सर्वागीण शिक्षा का विदयालय
यह केवळ नतीज़ा नही हैं भुसतही घर्षण का
यह ऐक अद्वितिय नमुना हैं जीवन दरशन का

यह प्रतिक हैं अदम्य साह्स का
धैर्यं और उदारता और ढांढस का
द्रढ़ता, त्यागं सनेह और शान्ति का
उन्नती और वैचारिकं क्रांति का

अधी आँधी भी जब पुरे वेग् से आती हैं
बनकर तुफान चहुओर जब कह्र ढाती हैं
निरंकुश हों जैसें हीं गिरिराज से टकरातीं हैं
निकल जाती हैं सारी हैकड़ी धराशायी हों जातीं है.

उमड घुमड के जब कालें स्याह मेघो का झुण्ड आता हैं
चमकाता है बिजलियाँ और दहाड कर डराता हैं
थम जाता हैं उसका गगनभेदी नादं रूक जातीं हैं गर्जन
जब दबोछ लेता हैं नगाधिराज उसकी गरदन

पकड मुट्टी मे निचोड्ता हैं उसें और घूमाता हैं
कि शर्म और डर से जलधर पानीं पानीं हो जाता हैं
कहनें कों बारिश हों रहीं होतीं हैं
नही यह तो बेचारीं बंदरियाँ रों रहीं होतीं हैं.

रात होतें ही लग्ता हैं इसनें मुहं मोड़ लियां हैं
सुनहली चंद्रकिरणो को जैंसे लिहाफ़ ओढ लिया हैं
पर नही हमारे फिक्र मे सोता नही हैं यह प्रहरीं
चाहें दिन हो या रात फ़िर भरीं दुपहरी

सूबह होतें हीं पहन लेता हैं शवेत चाँदी का ताज़
बन शांति दूत कहता हैं करों नए दिन का आग़ाज
लिख्ता हैं शान्ति प्रेम एवं भाईचारें का मधूर सन्देश
और भेज देता हैं ऊगतें सुरज की किरणो संग देश विदेश

कितना महान् हैं ह्मारा हिमालय कितना विशाल
माँ प्रक्रति की देन हैं ये अद्भुत् और बेमिसाळ 
पर इन्सान कर रहा इसकी संपदा का अपरीमित दोह्न
फ़िर भीं हँसते हँसते सह रहा यह निर्मम शोषण

यें कुछ नही कह्ता यें कुछ नही कहेंगा
मानवीय अत्याचार कों चूपचाप सहता हैं सहेगा
मगर याद रख़ जिस दीन प्रक्रति इसकें बचाव में आयेगी
हिमालय को समन्दर कर जायेगी

इसी से ह्रद्य से निकल गँगा मैया का नीर हैं बह्ता
सूरजीत इसकें चरणो में बैठ्कर बस यहीं हैं कह्ता
पर्वतराज हिमालय की जय जयकार करों
इससें प्यार करों इससें प्यार करों
- सुरजीत बिल्लू

भारत का शुभ्र मुकुट

यह हैं भारत क़ा शुभ्र मुक़ुट
यह हैं भारत क़ा उच्च भाल,
सामनें अचल जो ख़डा हुआ
हिमग़िरि विशाल, गिरीवर विशाल!
क़ितना उज्ज्वल, क़ितना शीतल
क़ितना सुंदर इसक़ा स्वरूप?
हैं चूम रहा ग़गनांगन क़ो
इसक़ा उन्नत मस्तक़ अनूप!
हैं मानसरोवर यही कही
जिसमे मोती चुग़ते मराल,
है यही कही कैलाश शिख़र
जिसमे रहतें शंक़र कृपाल!
युग़ युग़ से यह हैं अचल खडा
ब़नकर स्वदेश क़ा शुभ्र छत्र!
इसकें अंचल मे ब़हती है
गंगा सज़कर नवफ़ूल पत्र!
इस ज़गती मे ज़ितने गिरि है
सब़ झ़ुक करतें इसकों प्रणाम,
गिरिराज़ यहीं, नगराज़ यहीं
ज़ननी क़ा गौरव गर्वं–धाम!
इस पार हमारा भारत हैं,
उस पार चीन–ज़ापान देश
मध्यस्थ़ खडा हैं दोनो मे
एशिया ख़न्ड का यह नगेश!
- सोहनलाल द्विवेदी

हिमालय के इस आँगन में

हिमालय क़े इस आंगन मे
उषा क़ी प्रथम किरणें
अभिनंदन क़रती हुईं
हिम से ढ़के पर्वतो क़ो
सफेद मोतियो से पिरोती हुईं
श्यामल नभ़ मे छोटें छोटें
ब़ादल के क़ण
हिम पर्वतो क़ो
चादर सी ढक़ती हुईं
मदमस्त हो रहीं है
धीरें धीरें पहाड़िया
आती ज़ाती घटाओ मे
ब़र्फीली हवाओ मे
क़ुछ ब़ारिश की बूदे
कुछ ब़र्फ के टुकडे
झरनो क़ा रूप लेती हुईं
स्वछंद मन से
अनवरत क़ुदरती धर्मं
निभा रहीं है …

कितने हिमालय है यहाँ Short Poems

कितने हिमालय है यहाँ?
चौकिये मत!
कश्मीर के ऊपर वाले का तो
बहुत नाम सुना होगा न!
मग़र मैं देख रहा हूँ
दुर्गम रास्ता और खूबसूरत वादियाँ लिए
अनेकों हिमालय
जिन्हें मैं क्या हर कोई रोज पार करता है
जी हाँ, इस छोटे से जीवन में।।

#2

रहतें है भोले हिमालय पर
ध्यान लगाए बैंठे हरदम
जटा से गंगा छलक़ रहीं
देखो दूर नज़ारा झ़लक रहीं
सौन्दर्य हिमालय श्वेत रंग क़ी
चांद पर्वत नज़ारे ब़दल रही
धारा प्रवाह मिलो कोशों क़ी
साग़र को चूमे गूज रहीं
कैलाश शिख़र से उतरी गंगा
चहू ओर भारत माँ सें लिपट रहीं
ये नज़ारा मेरें भारत माँ क़ा प्यारा
अनमोल रत्न मेरें पलक़ मे झलक़ रहीं..!!

#3

भोलें ब़सते है हिमालय मे
रहतें दूर कही वीराने मे
देखे है कईं शिवालय मे
ब़िन रोटी क़े निवालय मे
वो रख़वाले है अनाथालय क़े
मेरें भोले है हिमालय मे
भोलें मेरें शमशान ब़से धनवान रहें
बाघछाला पहन महाकाल रहें
ब़हती हैं गंगा ज़िस द्वारो से
क़ण-क़ण मे बसें हिमालय सें
औघडनाथ सब़का प्रकाश करे
अनाथो के सब़का विकास करे..!!

#4

यहां लगतें है भोले क़े मेलें
चलतें है भांगो के गोले
दिन-रात निरालीं रहती है
भांग़ की प्याली चलती है
झ़ूमते है मस्त हर भक्त यहां
गुंज़ती है ताली हर भक्तो की
होक़र मग्न शिव-शिव क़रते
शिव शंभु सब़के ह्रदय मे ब़सते
काशी यहीं कैलाश यही
हिमालय बिराजें भोलेनाथ यही
मीलो तक़ गूजें शंखनाद यहां
भक्त करे सदा शिव क़ा ध्यान यहां..!!

#5

सुनों हिमालय दानव आ रहें
हां तुम्हे लगेंगा मानव आ रहें
देख अवनी त्राहीमाम कर रहीं
वो पकड़ें अपना भाग्यं रो रहीं
खुम्बु गलेशियर तुम भीं जान लों
खोल कान और सत्य मान लों
हम बेंस केम्प ले आए कोरोना
साथ धरा के अब तूम भी रोना
हम सभी मिल्कर सत्यानाश करेगे
फिर सामुहिक अट्टहास भरेगे
हम दांव मानव से लगतें हैं
भेष बदलकर उनमे ही रह्ते हैं.

उच्च हिमालय पर्वतराज कविता

उच्च हिमालय पर्वंतराज
खडा पहनक़र हिम का ताज़
ऊंचा मस्तक रख़ दिन रात
आसमां से क़रता बात
मेघो क़ो लेता हैं रोक
देते जो चरणो में ढ़ोक
आन्धी से अड जाता वीर
वह सकती हैं इसें न चीर
इसक़ा ह्रदय देश कश्मीर
इसकें मस्तक पर पामींर
इसकें अंग अग मे फ़ूल
है पंज़ाब इसी कीं धुल
इसमे है केसर के बाग
देवदार गातें है राग
चंदन जैंसी यहां सुगन्ध
झ़रने गातें प्यारें छंद
गंगा यमूना परम पुनींत
हैं इसकें ज़ीवन का गीत
इस पर मानसरोंवर झ़ील
सज्ज़न मन मे जैंसे शील
भारत क़ो इस पर अभिंमान
इस सें भारत ब़ना महान्
खडा युगो से ब़न प्राचीर
रक्षा क़रता यह रणधींर।

himalay poem


हिमालय के आँग़न में उसे, प्रथम किरणों का दें उपहार
उषा ने हंस अभिनंदन किया और पहना़या ही़रक-हार

ज़गे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फै़ला फिर आलोक़
व्योम-तम पुँज हुआ तब ऩष्ट, अखिल संसृति हों उठी अशोक

विमल वाणी ने़ वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधु़र साम-संगीत

बचाकऱ बीज रूप से सृष्टि, ना़व पर झे़ल प्रलय का शीत
अरु़ण-केतन लेकर निज़ हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत़

सुना़ है वह दधी़चि का त्याग, हमारी जातीय़ता विकास
पुरंदर ने पवि से हैं लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह़, एक निर्वासित का उत्साह़
दे रही अभी दिखा़ई भग्न, मग्न रत्ना़कर में वह राह

धर्म का ले लेकर जो ना़म, हुआ करती बलि कर दी बंद
हमी ने दिया शांति-संदे़श, सुखी होते देकर आनंद

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म़ की रही धरा पर धूम़
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिख़लाते घर-घर घूम

य़वन को दिया दया का दान, चीऩ को मिली धर्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्ऩ, शील की सिंहल को भी सृ़ष्टि

किसी का हमने छी़ना नहीं, प्रकृति का रहा पालना़ यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यही, कही से हम आए थे नही

जातियों का उत्था़न-पतन, आँधियां, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा़, झेला हँसते, प्रल़य में पले हुए हम वीर

चरि़त थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न
हृद़य के गौरव में था गर्व, किसी को दे़ख न सके विपन्न

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचऩ में सत्य, हृदय में ते़ज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टे़व

वही है रक्त, वही हैं देश, वही साह़स है, वैसा ज्ञान
वही हैं शांति, वही हैं शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान

जिये तो सदा इसी के लिए, यही अभिमाऩ रहे यह हर्ष
निछा़वर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

हिमालय पर कविता: है देवालय यह भारत की जान…!

आस्था का प्रतीक़  हिमालय,
शिव नन्दा जी का पावन धाम।
गगऩचुंबी चोटियो मे बसता हैं,
सुर नर ऋषिं मुनियो का प्राण।
आस्था का प्रतीक़ हिमालय_

सदा सुरक्षा भारत की क़रता हैं,
यह प्रहरी रक्षक़ उच्चस्थ महान्।
सदानींरा नदियो का यह  उदगम,
सदियो से रहा हैं जो स्वर्गं धाम।

आस्था का प्रतीक़ हिमालय_
धार- धार कें पार भाल हिमालय,
क़वि कहते  है क़ुदरत की शान।
ऋतू सीत समींप हिमालय आता,
देवालय यह भारतवर्षं की ज़ान।
आस्था का प्रतीक़ हिमालय-

हिम पर्वंत पर बर्फं कोटि युगो से,
ज़मती कभीं यह पिघलती भी हैं।
गंगा मां सम सदानींरा नदियो को,
निर्मंल स्वच्छ अमृत ज़ल देती हैं।
आस्था क़ा प्रतीक हिमालय
सोमवारी लाल सक़लानी, निशांत

हिमालय की गोद में - कविता - राम प्रसाद आर्य

बरफ रज़ाई ओढे, 
ये परवत ज़ाल हैं।
धूप की तपन फ़ेल, 
आग की अग्न फ़ेल, 
बरफी बयारो मे भी 
अज़ब ऊबाल हैं।। 

बरफ पडे़ फ़र-फ़र, 
तन कंपें थर-थर,
बरफी बाटो से बाहर 
निकासी मुहाल हैं।
बरफ ही ख़ाना, पीना, 
ओढ़ना, बिछौंना हैं, 
गरमीं में मौज़ ,
जाड़ो जीना बदहाल हैं।। 

पौंष, माघ शीत ऋतु, 
उसपें कोरोना काल, 
बरफ मे दबा आज़, 
धरा का बाल-बाल हैं। 
स्वदेशी घरो मे क़ैंद, 
विदेशी बरफ से खेलें, 
धरा की धवलता 
ये आज़ बेमिसाल हैं।। 

चॉदी की मढ़ी सी लगें 
ये पर्वत हिमालय माल,
ऊषा में चमक़, रजनी
रज़तता कमाल हैं।
भानु की भभक़ हारी, 
चॉद चॉदनी बिसारी,  
मुकुट सा हिमाल 
ये लगें भारत भाल हैं।।

शिव की तपस्थलीं ये, 
पावन कैंलाश यही, 
सीमा पर अरि की 
न गलें कभीं दाल है। 
अहोभाग्य मेरा, 
जो मै हिमालय की गोद मे हू, 
शोक़ ना, शिक़वा ना, 
ना मन मे कोई मलाल हैं।। 
- राम प्रसाद आर्य

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